शनिवार, 9 सितंबर 2017

दास्तान ए देवालय 1 मंदिर श्री रघुनाथ जी नरसिंहगढ़

              पुराने किले के ठीक नीचे स्थित श्री रघुनाथ जी मंदिर की अपनी अलग ही दिलचस्प कहानी है । नरसिंहगढ़ रियासत की स्थापना के बाद दूसरा महत्वपूर्ण मंदिर था श्री रघुनाथ जी मंदिर । जिसका निर्माण नरसिंहगढ़ रियासत के तृतीय शासक महाराज मोती सिंह जी¹ द्वारा सन् 1761 में कराया गया । महाराज मोती सिंह जी का श्री राम के प्रति अटूट विश्वास था । शायद महाराज साहब की इसी अटूट श्रद्धा से प्रसन्न होकर एक रात को श्री रघुनाथ जी ने महाराज मोती सिंह जी को स्वप्न में स्वयं को इस्लामनगर की बावड़ी से निकालने की प्रेरणा दी । उस समय इस्लामनगर भोपाल रियासत की राजधानी हुआ करता था और भोपाल रियासत पर राज था मुसलमान नवाबों का । कहा जाता है कि उस वक्त मुस्लिम शासक होने की वजह से भोपाल रियासत में हिन्दू मंदिरों के शिखर न बनाये जाने का आदेश था । हिन्दू देव प्रतिमायें अस्थायी खपरैल की छत या तंबू में रखी होती थी । सुबह महाराज मोती सिंह जी ने अपना स्वप्न दरबार में अपने विश्वसनीय सभासदों को सुनाया और इस्लामनगर की बावड़ी से प्रतिमाओं को निकलवाने के लिये भोपाल रियासत की तत्कालीन शासक बेगम² से अनुमति लेने हेतु पत्र भेजा । बेगम को इस तरह के स्वप्न के सच होने पर संशय था किन्तु उन्होनें इसकी सहज अनुमति महाराज मोती सिंह जी को दे दी और साथ ही यह भी कहा कि यदि आपका ये स्वप्न सच साबित हुआ और बावड़ी से ऐसी कोई प्रतिमा निकलती है तो जो भी मोती सिंह जी चाहेंगे वे उन्हें देने को तैयार होंगी । महाराज मोती सिंह जी इसके लिये तैयार हो गये और प्रतिमाओं को निकलवाने के लिये कार्य शुरू किया गया और एक एक कर बावड़ी से पाँच सफेद संगमरमर की प्रतिमायें निकाली गई जिसमे अन्त में निकली भगवान श्री रघुनाथ जी की सबसे बड़ी प्रतिमा भी शामिल थी । पाँच प्रतिमाओं में माता जानकी, श्री रघुनाथ जी, लक्ष्मण जी, भरत जी तथा शत्रुघ्न जी की प्रतिमायें थी । स्वप्न के सत्य प्रमाणित होने पर महाराज मोती सिंह जी ने कोई जागीर या धन माँगने के बजाय बेगम से भोपाल रियासत के सभी हिन्दू मंदिरों पर शिखर न बनाये जाने के आदेश को रद्द कर मंदिरों के शिखर बनवाने की माँग रखी जिसे बेगम ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और तभी से भोपाल रियासत के हिन्दू मंदिरों में शिखर बनाये जाने लगे ।

               चूँकि प्रतिमायें तो प्राप्त की जा चुकी थी मगर उन्हें विधि विधान से रखे जाने हेतु मंदिर का निर्माण अब तक नहीं किया गया था । इसलिये भोपाल से लौटते समय महाराज मोती सिंह जी ने नरसिंहगढ़ के नजदीक ही बसे एक छोटे से गाँव में अस्थायी रूप से प्रतिमायें रखवा दी । जिस गाँव में वे प्रतिमायें अस्थायी तौर पर रखी गयी थी उस गाँव का नाम बाद में रघुनाथपुरा हुआ । नरसिंहगढ़ लौटने के साथ ही महाराज ने रघुनाथ जी की स्थायी स्थापना के लिये मंदिर बनाये जाने का कार्य प्रारंभ कराया । इसके लिये किले के ठीक नीचे ही स्थान का चयन किया गया । मंदिर निर्माण का कार्य जारी था और लगभग पूर्ण होने को ही था तभी महाराज मोती सिंह जी को फिर से एक स्वप्न आया जिसमें रघुनाथ जी ने लूट के पैसे³ से मंदिर बनाये जाने पर नाराज़गी ज़ाहिर की, और फिर उस निर्माणाधीन मंदिर को वैसा ही छोड़ दिया गया तथा उसके करीब ही मंदिर निर्माण का कार्य दोबारा से प्रारंभ किया गया लेकिन इस बार मंदिर को बहुत ही सादा स्वरूप दिया गया जिसमें भगवान श्री रघुनाथ जी सहित पाँचों प्रतिमाओं की पूर्ण विधि विधान से स्थापना की गई।
              महाराज मोती सिंह जी की अटूट आस्था के चलते ही भगवान रघुनाथ जी को नरसिंहगढ़ रियासत के राजा के रूप में पूजा जाने लगा और महाराज स्वयं को दीवान या सेवक की तरह मानकर राजकाज का संचालन करते रहे । सभी दस्तावेजों पर भी हस्ताक्षर के स्थान पर राम नाम सही लिखा जाता तथा शाही मुद्रा लगा दी जाती थी महाराज स्वयं अपने हस्ताक्षर नहीं किया करते थे । कई सारे शासकीय कार्य और महत्वपूर्ण निर्णय श्री रघुनाथ जी के दरबार में बैठकर ही लिये जाते थे ।



ताज़ा हालात
                सन् 1889 में मन्दिर की सेवा पूजा का कार्य पं. श्री नाथूराम जी मेहता को सौंपा गया, इसके बाद कन्हैयालाल जी मेहता, श्री नित्यानंद जी मेहता, श्री विध्यानंद जी मेहता ने पींढी दर पीढी इस कार्य का निर्वहन पूरी आस्था के साथ किया । वर्तमान में पं. विनोद कुमार जी मेहता अपने भाईयों और पुत्रों के साथ मंदिर की सेवा पूजा का कार्य कर रहे हैं तथा मंदिर में रामनवमीं, जन्माष्टमी, हिंडोला उत्सव, विजयादशमी, अन्नकूट इत्यादि सभी मुख्य त्यौहार मनाये जाते हैं । राजा के शासन के समय में विजयादशमी के दिन मंदिर से विमान रवाना होने के पूर्व 21 तोपों की सलामी दी जाती थी, उसके बाद ही रावण दहन के लिये विमान रवाना होता था । वर्तमान में शासन एवं हिन्दू उत्सव समीति द्वारा विजयदशमी का त्यौहार मनाया जाता है तथा पुलिस प्रशासन द्वारा बन्दूकों की सलामी भी दी जाती है । प्रतिवर्ष दीपावली के दूसरे दिन अन्नकूट का आयोजन भी किया जाता है ।
    हमारे प्रदेश में बाकायदा धर्मस्व विभाग बना हुआ है और मंदिरों के जीर्णोद्धार एवं अन्य संबंधित कार्यों के लिये विभाग के पास बजट भी होता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि रियासतों के विलय के बाद से कुछ कमाई वाले प्रसिद्ध मंदिरों को छोड़ दें तो बाकि की हालत बड़ी खराब हो रही है । ऐसा ही कुछ हाल हमारे रघुनाथ जी के मन्दिर का भी है । विलय के पूर्व तत्कालीन समय में राज कोष से 75/- रुपये महीने रघुनाथ जी के मंदिर को मंदिर से संबंधित खर्चों के लिये दिये जाते थे, जिसमें उस समय मन्दिर में बिजली‍ पानी, अनाज आदि की व्यवस्था आसानी से हो जाती थी और पुजारी भी अपने परिवार का पालन आसानी से कर लिया करते थे लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी सरकार की ओर से मंदिर के खर्च के लिये 75/- रुपये महीना मंदिर प्रबंधक को दिये जाते हैं । शायद धर्मस्व विभाग आज भी 70 साल पहले की मंहगाई दर को ही मानते आ रहा है । इसके अलावा 1000/- रुपये महीना पुजारी को तनख्वाह के तौर पर दिये जाते हैं । वर्तमान में मन्दिर की ईमारत जगह जगह से क्षतिग्रस्त हो रही है । कुछ एक बार शासन की ओर से जीर्णोद्धार का कार्य कराया भी गया लेकिन वह पर्याप्त नहीं था ।
आज मंदिर की दिवारें अपनी दरारों के ज़रिये अपनी ऐतिहासिकता और उपेक्षा खुद बयाँ कर रही हैं।



  1. मंदिर की स्थापना का समय सन् 1761 में मोती सिंह जी महाराज द्वारा बताया जाता है जबकि जब मैनें नरसिंहगढ़ के इतिहास को थोड़ा खंगाला तब पता चला कि मोती सिंह जी महाराज की मृत्यु सन् 1751 में हो गई थी यानि रघुनाथ जी मंदिर की स्थापना के 10 वर्ष पूर्व, और 1761 में नरसिंहगढ़ के राजा महाराज खुमान सिंह जी थे । जिन्होनें 1751 से 1766 तक राजकार्य संभाला । निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि मंदिर के निर्माण का कार्य मोती सिंह जी महाराज के समय में शुरु हो चुका हो लेकिन कार्य पूर्ण होने के पहले ही उनकी मृत्यु हो गई हो तथा बाद में उनके पुत्र महाराज खुमान सिंह जी के कार्यकाल में मंदिर स्थापित तो हुआ लेकिन मोतीसिंह जी महाराज का ही नाम शिलालेख पर लिखवाया गया । 
  2. दूसरी एक बात जो मंदिर के संबंध में कही गई है वो ये कि महाराज मोती सिंह ने अपने स्वप्न के आधार पर बावड़ी से प्रतिमाऐं निकालने के लिये भोपाल रियासत की तत्कालीन महिला शासक से अनुमति ली थी । जब मैनें इस बारे में कुछ खोज की तब पता चला कि भोपाल रियासत में सन् 1819 से 1926 तक 4 बेगमों ने शासन किया था लेकिन फिर भी ये वक्त प्रतिमाओं के निकलने के वक्त से मेल नहीं खाता । 1761 में मंदिर की स्थापना हुई और अगर मोती सिंह जी महाराज ने ही प्रतिमाओं के संबंध में स्वप्न देखा था तो उनकी मृत्यु यानि 1751 के पहले का ही कोई समय हो सकता है । भोपाल में सन् 1742 से 1777 तक नवाब फैज़ मोहम्मद खान ने शासन किया और उन्होंने ही भोपाल रियासत की राजधानी इस्लामनगर से भोपाल स्थानांतरित करवाई थी । लेकिन यहाँ पर फिर से एक संशय उत्पन्न होता है कि इतिहास में जो बेगम से अनुमति लेने की बात कही गई है क्या वो गलत है ? फिर एक बार खोज करने पर पता चला कि 1742 से 1777 तक शासक तो नवाब फैज़ मोहम्मद खान ही थे लेकिन वो कुछ ज्यादा ही धार्मिक और वैरागी थे इसलिये उस समय में प्रभावी शासक उनकी सौतेली माँ ममोला बाई थी । इस तथ्य के बाद सारे आँकड़े मेल खा जाते हैं । 
  3. लूट के पैसों के बारे में बताया जाता है कि कई बार कुछ लुटेरों को नरसिंहगढ़ रियासत द्वारा संरक्षण दिया जाता था तथा उनसे इसके एवज में कुछ धन ले लिया जाता था ।


स्त्रोत

  • श्री रघुनाथ जी मंदिर के वर्तमान पुजारी पं. श्री विनोद कुमार जी मेहता ने स्वयं मंदिर की स्थापना एवं वर्तमान व्यवस्था के संबंध में जानकारी दी । इस अमूल्य जानकारी के लिये मैं श्री मेहता जी का आभारी हूँ ।

  • मंदिर के संबंध में कई अन्य तथ्य बड़े भैया वरिष्ठ पत्रकार श्री रूपेश सिंह जी से जानने को मिले । मैं भैया रूपेश सिंह जी का भी आभार व्यक्त करता हूँ ।

  • इसके अलावा विकीपीडिया एवं अन्य वेबसाईट से भी कुछ जानकारी एकत्र की गई है । जो लेख को तथ्यपरक बनाने में काफी कारगर सिद्ध हुई ।