ज्योतिषीय
नवग्रहों में सबसे ज्यादा भयभीत करने वाले ग्रह के रूप में अपनी पहचान बनाये हुये ग्रह
हैं शनि । जो कि वैदिक कथाओं में देव पद पर आसीन हैं फिर भी राहु केतु का दैत्य होते
हुये भी उतना भय नहीं है जितना शनि देव का है । भय भी ऐसा कि शनिवार के दिन कोई कमण्डल
में शनि का दान लेने द्वार पर आ जाये तो उसे नकारने का साहस नहीं जुटा पाते और शनिवार
के दिन जूते चप्पल चोरी हो जाने पर भी मुस्कुराते हुये एक तसल्ली के साथ नंगे पैर घर
आ जाते हैं कि चलो शनि का दान उतर गया । पर क्या वाकई शनिदेव इतने बुरे हैं कि हर किसी
को सिर्फ परेशान ही करते रहें ? नहीं ! वास्तव में ऐसा नहीं है, लेकिन विगत कुछ दशकों
में जैसे जैसे पारिवारिक, सामाजिक, और व्यावसायिक परेशानियों के कारण मानसिक संताप
और तनाव बढता गया है वैसे वैसे ही अंधविश्वास और धर्म के नाम पर कालाबाजारी भी बढी
है । ऐसे में कुछ कर्मकाण्डी पंडितों ने जिन्हें
ज्योतिष का ज्ञान नहीं है या अधूरा ज्ञान है, कुछ ज्योतिषीय योग एवं स्थितियों के माध्यम
से अपने यजमानों को डराकर खूब चाँदी काटी है । उनके अनुसार आपके जीवन में किसी भी तरह
का कोई भी दुख संकट हो तो उसका कारण या तो कालसर्प योग होगा, अगर न हुआ तो शनि की ढैया
या साढे़साती मिल ही जायेगी क्योंकि एक समय में २ राशियों पर ढैया और ३ राशियों पर
साढे़साती चल ही रही होती है । मतलब कि कुल १२ राशियों में से ५ पर तो शनि का प्रभाव
होगा ही और अगर ये भी न हो तो शनि की युति, दृष्टि, स्थिति, दशा कुछ तो मिलना ही है
बस इतने में काम हो गया ।
सबसे अव्वल तो ये कि कोई भी ग्रह बुरा या
अच्छा नहीं होता । बस सभी का अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है और उसी के अनुसार उसके कारकत्व
होते हैं, और किसी पत्रिका में कोई ग्रह किन भावों का प्रतिनिधित्व कर रहा है उसी के
अनुसार फल दे सकता है । जब हम शनि की बात करते हैं तो शनिदेव को हमें अपने कर्मों का
फल देने का अधिकार दिया गया है ध्यान दीजिये अच्छे कर्मों का फल अच्छा ही होगा और बुरे
कर्मों का फल बुरा होगा । और दूसरी महत्वपूर्ण बात कि कोई भी ग्रह फल तभी दे सकते हैं
जब दशा और गोचर में वे प्रभावी हों और किसी भाव से संबंधित फल देने के लिये दशा और
गोचर अनुकूल स्थिति में हों । यहाँ भी साढ़ेसाती
और ढैया का प्रभाव स्पष्ट हो जाता है क्योंकि ये योग या कहें कि यह स्थिति सिर्फ गोचर
के अनुसार होती है जबकि किसी भी प्रकार का फल कथन करने के लिये दशा का अध्ययन करना
भी अत्यंत आवश्यक है ।
शनि, सूर्यपुत्र हैं लेकिन दोनों पिता पुत्र
में मतभेद है, दोनों के कारकत्व भी विरोधी हैं या कहें कि बिल्कुल विपरीत हैं । एक
समानता ये है कि दोनों को ही क्रूर कहा गया है, लेकिन दोनों को जो कार्य विधान द्वारा
सौंपा गया है उसके लिये क्रूर होना भी आवश्यक है । सूर्य राजा हैं और उन्हें निष्पक्ष
निर्णय देने के लिये क्रूर होना आवश्यक है और शनि कर्म फल दाता हैं इसलिये शनि को भी
क्रूर होना पड़ता है यदि वे क्रूर न होकर भावुक हो जायें तब वे निष्पक्ष रूप से कर्म
फल नहीं दे पायेंगे । सूर्य जहाँ राजा का प्रतिनिधित्व करते हैं वहीं शनि प्रजा का
प्रतिनिधित्व करते हैं, अगर सूर्य प्रथम श्रेणी के अधिकारी हैं तो शनि चतुर्थ श्रेणी
के कर्मचारी । सूर्य शासक को इंगित करते हैं तो शनि कर्मठ कार्यकर्ता, आज्ञाकारी सेवक
को इंगित करते हैं । सूर्य सबसे मंहगी और दुर्लभ धातु स्वर्ण का प्रतिनिधित्व करते
हैं तो शनि को सर्व सुलभ लोहा प्रिय है । शनि समुद्री नमक का प्रतिनिधित्व करते हैं
तो नमक के अधिक सेवन को सूर्य के पीड़ित होने का कारक बताया गया है । सूर्य भौतिक उन्नति
नाम, पद, प्रतिष्ठा के सूचक हैं तो शनि आध्यात्मिक उन्नति के । इस तरह हम समझ सकते
हैं कि पिता पुत्र में मतभेद क्यों है ।
शनि अध्यात्म के भी प्रबल कारक हैं, और
इसी वजह से कुछ और इल्जाम भी शनि पर लगाये जाते हैं, जैसे कि शनि का स्वभाव एकाकी है,
वे स्वार्थी हैं आदि । जबकि आध्यात्मिक विकास के लिये एकांत प्राथमिक आवश्यक तत्व हो
जाता है, दूसरा आवश्यक तत्व है स्व के विकास की प्रवृत्ति । जिसके कारण शनि को स्वार्थी
भी कहा गया है, जब तक जातक स्वार्थी नहीं होगा
तब तक वह अन्य में उलझा रहेगा और ऐसी स्थिति आध्यात्मिक विकास में बाधा साबित होगी
और अन्यों से दूर करने के गुण के कारण शनि को विच्छेदकारी ग्रह भी कहा गया है । इसके
बाद जरूरी है गहन चिंतन । शनि गहन चिंतन की प्रवृत्ति देते हैं और अनुसंधान जैसे कार्यों
के लिये गहन चिंतन बेहद जरूरी होता है इसलिये शनि का प्रभाव जातक को अनुसंधान के क्षेत्र
में भी ले जाता है, या शनि का प्रभाव होने पर जातक गहन चिंतन वाला, अनुसंधान और विश्लेषण
कर्ता होता है । वह किसी बात को बहुत जल्दी भूलता नहीं है वरन मन में बार बार उसकी
आवृत्ति करता रहता है और नये नये निष्कर्ष निकालता रहता है । विषय का आवश्यकता से अधिक
चिंतन कभी कभी निराशावादी भी बना देता है, और नकारात्मक विचारों को जन्म देता है ।
कोई शुभ प्रभाव न होने एवं अन्य अशुभ प्रभावों के होने पर ऐसे जातक आत्महत्या को भी
प्रेरित हो जाते हैं ।
शनि को वृद्ध भी कहा गया है, वास्तव में वृद्ध होने
का मतलब सिर्फ शरीर से वृद्ध होना नहीं होता बल्कि अपनी उम्र से अधिक उम्र वाली सोच
रखने वाले को भी वृद्ध कहा जाता है । इसलिये शनि परिपक्वता के भी सूचक हैं । जब शनि
के प्रभाव से जातक की सोचने की प्रवृत्ति गहन स्तर तक होगी तब ऐसा जातक जल्दी ही परिपक्व
मानसिकता को पा लेता है और अपने हमउम्रों के बीच वृद्ध होने की उपाधि को पाता है ।
खासकर जब शनि पंचम भाव में स्थित हो तो जातक की सोच अपनी उम्र से काफी आगे चलती है
। ऐसे जातक मध्यस्थता करने और परामर्श कार्य करने में भी सक्षम होते हैं ।
शनि अनुशासन प्रिय हैं और सात्विक भी, जब
भी शनि की दशा, अन्तर्दशा जारी हो या साढे़ साती या ढैया चल रही हो तब जातक को खान
पान और व्यवहार में सात्विक रहने की हिदायत सबसे पहले दी जाती है । माँस मदिरा के सेवन
से दूर रहना और वरिष्टों के साथ ही साथ अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से भी उचित व्यवहार
करना शनि की नज़रों में अपनी छवि सुधारने जैसा ही है । शनि बहुत ही व्यावहारिक दृष्टि
से जीवन को देखते हैं और भावनाओं में बहकर निर्णय लेना शनि का सूचक नहीं है । भावुकता
से शनि का संबंध कालपुरूष की कुण्डली से भी समझा जा सकता है, शनि का २ राशियों पर स्वामित्व
है पहली राशि मकर जो कि कालपुरुष की कुण्डली में दशम भाव में स्थित हुई है यह राशि
भावुकता के भाव अर्थात पंचम से षष्ठम् भाव में स्थित हुई है और दूसरी राशि है कुंभ
जो कि पंचम से सप्तम में स्थित हुई है यानि कि पंचम से ठीक विपरीत भाव में । इस तरह
दोनों ही राशियाँ भावुकता के पक्ष में नहीं हैं । इसीलिये शनि का प्रभाव होने पर जातक
भावुक न होकर तर्कसंगत होता है । ऐसे जातक सिर्फ उन्हीं परंपरा का पालन कर पाते हैं
जिनका तार्किक कारण उन्हें पता हो और न पता होने की स्थिति में वे तर्कसंगत व्यावहारिक
कारण कि खोज भी करते हैं । तर्कसंगत होने के कारण ही शनि प्रधान जातक गणित, विज्ञान
जैसे विषय की ओर अधिक आकृष्ट होते हैं और इंजीनियरिंग, तथा विधिक या न्यायिक विभाग
जैसे व्यावहारिक और तार्किक क्षेत्रों को अपना कर्मक्षेत्र चुनते हैं । शनि दशम एवं
एकादश भाव के स्वामी होकर कर्म को प्रधानता देते हैं, लाभ के कारक भी होते हैं और साथ ही मितव्ययिता कि प्रवृत्ति भी देते हैं
।
मन्दचार यानि मन्द गति से चलने वाला । शनि
को मन्दचार कहा जाता है क्योंकि भचक्र की परिक्रमा पूरी करने में शनि को अन्य आठ ग्रहों
की तुलना में सबसे अधिक समय लगता है, हालांकि खगोलीय दृष्टि से ये तुलना एक बेमानी
ही है क्योंकि शनि का पथ भी अन्य ग्रहों की तुलना में सबसे बड़ा है और इसीलिये शनि
एक राशि में अन्य ग्रहों की तुलना में अधिक समय तक रहते हैं । जब शनि को किसी भी राशि
में एक लंबे समय तक रहना ही है तो उससे संबंधित फल देने में जल्दबाज़ी क्यों हो अतः
शनि जिस भाव से संबंध बनाता है उससे संबंधित फल देने में समय अधिक लेता है । ये स्पष्ट
हो कि शनि सिर्फ समय अधिक लेता है न कि फल देता ही नहीं है । और किसी भाव के फल विलंब
से मिलना कभी शुभ होता है और कभी परेशानी का सबब बनता है, जैसे यदि शनि विवाह भाव में
स्थित हो जाये या विवाह भाव के स्वामी से या भाव से किसी तरह संबंध बनाये तो विवाह
में विलंब होना ही है जो परेशानी का कारण हो सकता है लेकिन, जब शनि अष्टम मृत्यु भाव
से संबंध बना ले तो मृत्यु विलंब से देता है जो लंबी आयु का कारण बनता है । शनि की
गति मंद होने के कारण ही शनि सुस्ती, आलस्य और कभी कभी लापरवाही का कारण भी बनता है
।
शनि चूँकि सुस्त और धीमा ग्रह है और मंगल
सेनापति होने के नाते चुस्त और फुर्तीला ग्रह है, इसलिये शनि और मंगल की ऊर्जा एकदम
विपरीत हैं और जब दो विपरीत ऊर्जायें आपस में टकराती हैं तो विनाश की संभावना बढ़ जाती
है शायद इसीलिये शनि मंगल की युति होने पर बनने वाले योग को विष योग कहा गया है । शनि
को नपुंसक ग्रह भी कहा गया है जबकि निर्बीज राशियों में शनि कि एक भी राशि शामिल नहीं
है फिर ऐसा क्यों ? मेरे मतानुसार शनि प्रजा के सूचक है और प्रजा कोई भी हो सकती है
वो पुरूष हो सकती है और महिला भी और सभी लिंगों का मिश्रण भी । शनि निष्पक्ष हैं वे
लैंगिक आधार पर कर्मों के फल प्रदान नहीं करते हैं । जहाँ अन्य ग्रह किसी न किसी लिंग
का प्रतिनिधित्व करते हैं वहीं शनि किसी एक लिंग के सूचक नहीं हैं और शायद इसीलिये
शनि को नपुंसक की संज्ञा भी दी गई होगी ।
शनि के संबंध में अभी और भी बहुत कुछ लिखा
जा सकता है, बारह भावों में शनि के प्रभाव और फल तत्पश्चात् अन्य ग्रहों से, विभिन्न
राशियों एवं भावों में युति एवं दृष्टि आदि के फल लेकिन इस तरह से जितना भी लिखा जायेगा
वो अपर्याप्त ही होगा क्योंकि सभी के अनुभव सर्वथा भिन्न हो सकते हैं । फिर भी मैनें
अपने अनुभव एवं विश्लेषण के आधार पर शनिदेव के संबंध में अपनी अल्पबुद्धि से जो जाना
है वह सुधि पाठकगण के लिये लिपिबद्ध किया है । संभावित त्रुटियों के लिये क्षमाप्रार्थी
हूँ ।
-जयपुर
से प्रकाशित पत्रिका -"ज्योतिष सिद्धांत" के अक्टूबर - दिसम्बर 2018 के
अंक में प्रकाशित