हम लोग कोई खिलाड़ी नहीं थे, हम खेलते थे खालिस मनोरंजन के लिए । हमें जीतने हारने से कोई मतलब नहीं था, हममें से कोई किसी पदक या प्रतियोगिता की दौड़ में रुचि नहीं रखता था । हमारे खेल चुने जाते थे मौसम, मूड और संख्या के हिसाब से । जैसे बारिश के आसपास फुटबाल हमारा प्रिय खेल था । गीले मैदान में फुटबॉल खेलने का मज़ा ही अलग होता है और इस बीच ही अगर बारिश आ जाये, तो क्या कहने । ऐसे ही एक बारिश के बाद हम लोग फुटबॉल लेकर छोटे तालाब के पास के मैदान पर पहुँच गए । तालाब लबालब भरा हुआ था और मैदान भी तर था । अभी बहुत देर हुई नहीं थी कि किसी ने जोश में गलत दिशा में किक मार दिया और फुटबॉल गई तालाब में । हम सारे तालाब की पाल पर जाकर खड़े हो गये इस जुगाड़ में कई किसी तरह बिना पानी में उतरे बॉल बाहर ला सकें तो बढ़िया मगर बॉल किनारे के इतना करीब नहीं थी । हम में से 3 अच्छे तैराक थे संतोष, अशोक और होंडा (होंडा कोई नाम नहीं है, नाम तो दीपक है मगर बचपन मे उसके पापा के पास हीरो होंडा गाड़ी थी जिस पर बैठे रहना उसे बहुत पसंद था बस इतने में ही नाम रख दिया गया होंडा, आज भी कई लोग नरसिंहगढ़ में जानते ही नहीं होंगे कि होंडा का नाम क्या है। ) लेकिन हमारे नए नए तैरना सीखे विशाल बाबू ज्यादा जोश में थे और तुरन्त कपड़े उतारकर तालाब में कूद पड़े और बड़ी तेजी से फुटबॉल की ओर बढ़ गए । पानी के बाहर जो दूरी कम जान पड़ती है वो असल में तैरने में पता चलती है जब साँस फूलने लगती है । ऐसा ही विशाल के साथ हुआ फुटबॉल तक पहुँचते पहुँचते उसकी साँस भर गई और उसने सोचा था कि फुटबॉल पकड़ कर उसकी मदद से बिना मेहनत कर कुछ सुस्ताकर लौट आएगा मगर करीब पहुँचने पर तैरने के कारण विशाल के हाथों की हलचल से उठी लहरों से फुटबॉल कुछ और दूर हो गई और उसे पकड़ने की हड़बड़ाहट में विशाल भाई ने डुबकी लगा ली । अब थकान और फूली हुई साँसों के साथ ये अनचाही डुबकी थोड़ी भारी पड़ गई और विशाल घबरा गया और घबराहट में बेतरतीब तरीके से हाथ पैर मारने लगा । हम किनारे पर खड़े संजय, विजय, हेमन्त, अमित, आनन्द, मैं और बग्गा (बग्गा भी उपाधि है नाम नहीं ) हम दर्शकों में हलचल हुई स्थिति समझते हुए हमने अपने तैराकों से विशाल को निकालने के लिए कहा । अब हमारे दो तैराक अशोक और सन्तोष आराम से बातें कर रहे थे - अशोक - ले तू जाए के मैं जाऊँ?
संतोष - हाँ चला तो मैं भी जाऊँ पर कपड़े गीले हो जायेंगे ।
अशोक - तो मैं जाऊँ।
संतोष - नी रेन दे मैं ही जाऊँ ।
और इसी के साथ सन्तोष तालाब में उतरने की तैयारी करने लगा, घड़ी उतार रहा है, फिर आराम से शर्ट के बटन खोलने शुरू किए, उधर विशाल की हालत खराब और उसे देखकर हम दर्शक दीर्घा वालों की हालत खराब, हमने जरा जोर लगाकर इन ठंडे तैराकों को चिल्लाया और तभी होंडा जो अब तक चुपचाप खड़ा था तुरन्त टीशर्ट साइड में फेंक कूद गया । होंडा अच्छा तैराक था और शारीरिक रूप से भी हम सभी से लम्बा चौड़ा था, वो तुरंत ही विशाल के पास पहुँचा, एक हाथ से विशाल की गर्दन पकड़ी और दूसरे हाथ से फुटबॉल को किनारे की तरफ धकेलता हुआ ले आया ।
विशाल जिंदा था, होश में था, बस थोड़ा घबरा गया था । पहले उसकी घबराहट कम होने का इंतजार किया गया फिर शुरू हुई उच्च कोटि की गालियों की श्रृंखला और विशाल हमें देख मौन रहकर मुस्कुरा रहा था ।