रविवार, 22 अगस्त 2021

फुटबॉल के खिलाड़ी

हम लोग कोई खिलाड़ी नहीं थे, हम खेलते थे खालिस मनोरंजन के लिए । हमें जीतने हारने से कोई मतलब नहीं था, हममें से कोई किसी पदक या प्रतियोगिता की दौड़ में रुचि नहीं रखता था । हमारे खेल चुने जाते थे मौसम, मूड और संख्या के हिसाब से । जैसे बारिश के आसपास फुटबाल हमारा प्रिय खेल था । गीले मैदान में फुटबॉल खेलने का मज़ा ही अलग होता है और इस बीच ही अगर बारिश आ जाये, तो क्या कहने । ऐसे ही एक बारिश के बाद हम लोग फुटबॉल लेकर छोटे तालाब के पास के मैदान पर पहुँच गए । तालाब लबालब भरा हुआ था और मैदान भी तर था । अभी बहुत देर हुई नहीं थी कि किसी ने जोश में गलत दिशा में किक मार दिया और फुटबॉल गई तालाब में । हम सारे तालाब की पाल पर जाकर खड़े हो गये इस जुगाड़ में कई किसी तरह बिना पानी में उतरे बॉल बाहर ला सकें तो बढ़िया मगर बॉल किनारे के इतना करीब नहीं थी । हम में से 3 अच्छे तैराक थे संतोष, अशोक और होंडा (होंडा कोई नाम नहीं है, नाम तो दीपक है मगर बचपन मे उसके पापा के पास हीरो होंडा गाड़ी थी जिस पर बैठे रहना उसे बहुत पसंद था बस इतने में ही नाम रख दिया गया होंडा, आज भी कई लोग नरसिंहगढ़ में जानते ही नहीं होंगे कि होंडा का नाम क्या है। ) लेकिन हमारे नए नए तैरना सीखे विशाल बाबू ज्यादा जोश में थे और तुरन्त कपड़े उतारकर तालाब में कूद पड़े और बड़ी  तेजी से फुटबॉल की ओर बढ़ गए । पानी के बाहर जो दूरी कम जान पड़ती है वो असल में तैरने में पता चलती है जब साँस फूलने लगती है । ऐसा ही विशाल के साथ हुआ फुटबॉल तक पहुँचते पहुँचते उसकी साँस भर गई और उसने सोचा था कि फुटबॉल पकड़ कर उसकी मदद से बिना मेहनत कर कुछ सुस्ताकर लौट आएगा मगर करीब पहुँचने पर तैरने के कारण विशाल के हाथों की हलचल से उठी लहरों से फुटबॉल कुछ और दूर हो गई और उसे पकड़ने की हड़बड़ाहट में विशाल भाई ने डुबकी लगा ली । अब थकान और फूली हुई साँसों के साथ ये अनचाही डुबकी थोड़ी भारी पड़ गई और विशाल घबरा गया और घबराहट में बेतरतीब तरीके से हाथ पैर मारने लगा । हम किनारे पर खड़े संजय, विजय, हेमन्त, अमित, आनन्द, मैं और बग्गा (बग्गा भी उपाधि है नाम नहीं ) हम दर्शकों में हलचल हुई स्थिति समझते हुए हमने अपने तैराकों से विशाल को निकालने के लिए कहा । अब हमारे दो तैराक अशोक और सन्तोष आराम से बातें कर रहे थे  - अशोक - ले तू जाए के मैं जाऊँ?
संतोष - हाँ चला तो मैं भी जाऊँ पर कपड़े गीले हो जायेंगे ।
अशोक - तो मैं जाऊँ।
संतोष - नी रेन दे मैं ही जाऊँ ।
और इसी के साथ सन्तोष तालाब में उतरने की तैयारी करने लगा, घड़ी उतार रहा है, फिर आराम से शर्ट के बटन खोलने शुरू किए, उधर विशाल की हालत खराब और उसे देखकर हम दर्शक दीर्घा वालों की हालत खराब, हमने जरा जोर लगाकर इन ठंडे तैराकों को चिल्लाया और तभी होंडा जो अब तक चुपचाप खड़ा था तुरन्त टीशर्ट साइड में फेंक कूद गया । होंडा अच्छा तैराक था और शारीरिक रूप से भी हम सभी से लम्बा चौड़ा था, वो तुरंत ही विशाल के पास पहुँचा, एक हाथ से विशाल की गर्दन पकड़ी और दूसरे हाथ से फुटबॉल को किनारे की तरफ धकेलता हुआ ले आया । 
विशाल जिंदा था, होश में था, बस थोड़ा घबरा गया था । पहले उसकी घबराहट कम होने का इंतजार किया गया फिर शुरू हुई उच्च कोटि की गालियों की श्रृंखला और विशाल हमें देख मौन रहकर मुस्कुरा रहा था । 

मंगलवार, 17 अगस्त 2021

सावन का मेला

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से कुछ 85 किमी की दूरी पर है मेरा घर, नरसिंहगढ़, जो पहाड़ों और प्राकृतिक सौंदर्य के बीच बसा है । नरसिंहगढ़ में साल में 2 मेले बड़े प्रसिद्ध थे । एक शिवरात्रि का और दूसरा सावन का जो सावन के हर सोमवार लगा करता था । दोनों मेलों में आधारभूत अंतर उस समय ये हुआ करता था कि महाशिवरात्रि का मेला लगता था बड़े महादेव पर, मतलब बड़े महादेव के करीब मैदान में क्योंकि मंदिर ऊपर पहाड़ पर है और वहाँ उस समय करीब 108 सीढ़ियां चढ़कर जा सकते थे । दूसरा मेला लगता सावन में छोटे महादेव पर । छोटा महादेव मंदिर भी एक अलग पहाड़ पर ही स्थित है मगर वहाँ तक गऊ घाटी के रास्ते जाया जाता था जो कि सुंदर पत्थरों से बनी हुई थी । सावन में गऊ घाटी की सुंदरता और भी बढ़ जाती थी, कि एक ओर पहाड़ और दूसरी ओर झरना और प्रपात । और उस रास्ते के दोनों ही ओर लगती थी दुकानें, पूरी गऊ घाटी पर । चूड़ियों की, चाट की, खिलौनों की, इंद्रजाल वाली किताबों की, गोदने वालों को, मिठाई की और पता नहीं क्या क्या, मगर हम कुछ 7-8 दोस्तों के ग्रुप को खास रुचि होती थी केले में । हम लोग सावन के मेले में कभी महादेव के दर्शन करने नहीं जाते थे क्योंकि वहाँ लम्बी लम्बी लाइनों में लगकर घण्टों में महादेव सामने पहुँचना और पुलिस वालों के द्वारा कुछ सेकेंड्स में तुरन्त आगे बढ़ा दिया जाना हमारे आदर्शों के खिलाफ लगता था मगर फिर भी हममें से एक भक्ति भाव वाला मित्र दर्शन करके आता था और तब तक हम बाहर खड़े नज़ारों का आनन्द लेते रहते थे, उसके बाद का नियम था कि 2-3 दर्जन केले लेकर हम सब दुकानों के पीछे ऊपर पहाड़ की एक बड़ी चट्टान पर जाकर बैठ जाते और मेले का विहंगम दृश्य देखा करते, यही कारण है कि आज भी बारिश होते ही केले खाने की याद आने लगती है । बड़ा गहरा रिश्ता सा हो गया है केले और बारिश का । 
मेले में ये नज़र रखना भी हमारे आनन्द में शुमार था कि क्लास की कौन कौन लड़की मेले में आई है और अगले दिन उसे ये बताकर सरप्राइज देना की हमने उसे देखा था वहाँ । लड़कियों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती, अरे हाँ मैं गई थी, मगर तुम कहाँ थे दिखे ही नहीं । बस यही सवाल हमें अपने आप में शरलॉक होम्स की सी अनुभूति देता था और अगली बार फिर जाने की प्रेरणा बनता था । 
हमारे इस तरह अलग थलग ऊपर बैठने का एक फायदा ये भी होता था कि मेले में आने वाले हमारे टीचरों की नज़र से हम बच जाते थे, वरना अगले दिन ये सुनने को मिलना तय था कि "पढ़ाई के लिए टाईम नहीं है मेले में घुमालो रोज़" । खैर इसका कोई जवाब नहीं था ।
इसके अलावा हम लोगों का मुख्य आकर्षण होता था सड़क किनारे लगी हुई किताब की दुकानें, जिसमें हम इंद्रजाल या बंगाल का काला जादू वाली किताबों में वशीकरण के टोटके पढा करते थे । कोई एक किताब हाथ आ जाती तो फिर सब कभी मौका देखकर घेरा बनाकर किताब पढ़ते थे, मतलब कोई एक पढ़ता था और बाकि सुनते थे, किया कभी किसी ने नहीं ।
बस यही आनंद थे सावन के मेले के । अब भी सावन शुरू होता है तो केले और मेले याद आते हैं । अब हालांकि मेलों का मजमून बहुत बदल चुका है । मगर ज़ेहन में छबि वही पुरानी वाली ही है ।