मंगलवार, 17 अगस्त 2021

सावन का मेला

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से कुछ 85 किमी की दूरी पर है मेरा घर, नरसिंहगढ़, जो पहाड़ों और प्राकृतिक सौंदर्य के बीच बसा है । नरसिंहगढ़ में साल में 2 मेले बड़े प्रसिद्ध थे । एक शिवरात्रि का और दूसरा सावन का जो सावन के हर सोमवार लगा करता था । दोनों मेलों में आधारभूत अंतर उस समय ये हुआ करता था कि महाशिवरात्रि का मेला लगता था बड़े महादेव पर, मतलब बड़े महादेव के करीब मैदान में क्योंकि मंदिर ऊपर पहाड़ पर है और वहाँ उस समय करीब 108 सीढ़ियां चढ़कर जा सकते थे । दूसरा मेला लगता सावन में छोटे महादेव पर । छोटा महादेव मंदिर भी एक अलग पहाड़ पर ही स्थित है मगर वहाँ तक गऊ घाटी के रास्ते जाया जाता था जो कि सुंदर पत्थरों से बनी हुई थी । सावन में गऊ घाटी की सुंदरता और भी बढ़ जाती थी, कि एक ओर पहाड़ और दूसरी ओर झरना और प्रपात । और उस रास्ते के दोनों ही ओर लगती थी दुकानें, पूरी गऊ घाटी पर । चूड़ियों की, चाट की, खिलौनों की, इंद्रजाल वाली किताबों की, गोदने वालों को, मिठाई की और पता नहीं क्या क्या, मगर हम कुछ 7-8 दोस्तों के ग्रुप को खास रुचि होती थी केले में । हम लोग सावन के मेले में कभी महादेव के दर्शन करने नहीं जाते थे क्योंकि वहाँ लम्बी लम्बी लाइनों में लगकर घण्टों में महादेव सामने पहुँचना और पुलिस वालों के द्वारा कुछ सेकेंड्स में तुरन्त आगे बढ़ा दिया जाना हमारे आदर्शों के खिलाफ लगता था मगर फिर भी हममें से एक भक्ति भाव वाला मित्र दर्शन करके आता था और तब तक हम बाहर खड़े नज़ारों का आनन्द लेते रहते थे, उसके बाद का नियम था कि 2-3 दर्जन केले लेकर हम सब दुकानों के पीछे ऊपर पहाड़ की एक बड़ी चट्टान पर जाकर बैठ जाते और मेले का विहंगम दृश्य देखा करते, यही कारण है कि आज भी बारिश होते ही केले खाने की याद आने लगती है । बड़ा गहरा रिश्ता सा हो गया है केले और बारिश का । 
मेले में ये नज़र रखना भी हमारे आनन्द में शुमार था कि क्लास की कौन कौन लड़की मेले में आई है और अगले दिन उसे ये बताकर सरप्राइज देना की हमने उसे देखा था वहाँ । लड़कियों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती, अरे हाँ मैं गई थी, मगर तुम कहाँ थे दिखे ही नहीं । बस यही सवाल हमें अपने आप में शरलॉक होम्स की सी अनुभूति देता था और अगली बार फिर जाने की प्रेरणा बनता था । 
हमारे इस तरह अलग थलग ऊपर बैठने का एक फायदा ये भी होता था कि मेले में आने वाले हमारे टीचरों की नज़र से हम बच जाते थे, वरना अगले दिन ये सुनने को मिलना तय था कि "पढ़ाई के लिए टाईम नहीं है मेले में घुमालो रोज़" । खैर इसका कोई जवाब नहीं था ।
इसके अलावा हम लोगों का मुख्य आकर्षण होता था सड़क किनारे लगी हुई किताब की दुकानें, जिसमें हम इंद्रजाल या बंगाल का काला जादू वाली किताबों में वशीकरण के टोटके पढा करते थे । कोई एक किताब हाथ आ जाती तो फिर सब कभी मौका देखकर घेरा बनाकर किताब पढ़ते थे, मतलब कोई एक पढ़ता था और बाकि सुनते थे, किया कभी किसी ने नहीं ।
बस यही आनंद थे सावन के मेले के । अब भी सावन शुरू होता है तो केले और मेले याद आते हैं । अब हालांकि मेलों का मजमून बहुत बदल चुका है । मगर ज़ेहन में छबि वही पुरानी वाली ही है । 

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