रविवार, 17 अप्रैल 2011

Dharm Ka Dhandha


मैं देख रहा हूँ इस पृथ्वी के बिगड़ते हुए हालात, यहाँ प्रकृति के रूप में साक्षात परमात्मा का, लड़खड़ाता संतुलन | मैं देख रहा हूँ, बड़े बड़े पंडालों में ईश्वर के नाम पर गूंजते हुए मधुर संगीत, नई नई धुनों पर उन्मादित होते "भक्तगण" |  एक लंबे वक्त से, जब से मैं समझने लगा हूँ देख रहा हूँ, और देख कर विश्लेषण कर रहा हूँ, कि इस घोर कलियुग में जहाँ धर्म का पतन होना चाहिये (वेदानुसार), वहीं लगातार प्रवचन करने वाले और व्यासपीठ पर आसीन होने वाले धार्मिक गुरूओं, संतों, महात्माओं की संख्या में ताबड़तोड़ इज़ाफा हुआ है और भक्तों की संख्या तो पंडालों के बढ़ते जा रहे आकार से ही अनुमानित की जा सकती है|
        इतना बड़ा विरोधाभास एक ओर जहाँ वेदों के अनुसार धर्म का पतन होना चाहिये, वहीं दूसरी ओर देखें तो धर्म बढ़ता ही जा रहा है लगातार...! यहाँ मन में सहज ही उठने वाले कुछ प्रश्न निम्नानुसार हैं...
Ø क्या वेद झूठे हैं?
Ø क्या कलियुग अब तक आया नहीं या बीत चुका है?
Ø क्या वाकई ये बात विचार योग्य है, या सब कुछ सामान्य है?
Ø मेरा दिमाग तो ठीक है ना ???

        अंतिम प्रश्न के दिमाग में जन्म लेते ही मन ज़रा उद्वेलित हो उठा, थोड़ा भड़भड़ाया, फिर सोचा क्यूँ तथ्यों को एकत्र कर स्वयं ही इन प्रश्नों का हल ढूँढा जाये |
        और फिर बस..... मैं निकल पड़ा तथ्यों की तलाश में........
यहाँ तथ्यों की तलाश में निकल पड़ने की बात सिर्फ प्रतीकात्मक है, वास्तव में जब अपने मन में जन्में सवालों का जवाब ढूँढ़नें के बारे में मैंने विचार किया तो पाया कि सब कुछ यहीं है मेरे आसपास, मेरे चारों तरफ, मैं हर और से तथ्यों से घिरा हुआ हुँ और हर कोई इस बारे में कुछ कुछ समझ रखता है, जरुरत है तो बस अपनी आँखों में ठण्डे पानी के चार‍-छः छींटें मारने और दिमाग पर जमीं धूल जो कि अक्सर भेड़चाल चलते रहने के कारण जम ही जाती है को साफ करने की | यहाँ मैनें देखा दुकानें सजी हुई हैं, छोटे से ठेले, मोबाईल वैन से लेकर बड़ेबड़े शोरुम तक की दुकानें सजी हैं | एक धंधा ! माफ कीजिए ये शब्द जरा भद्दा लगता है, एक बिज़नेस बड़ी जोरों पर है, एक इंडस्ट्री ऐसी भी है जो बिना टैक्स चुकाए और अन्य कानूनी कार्यवाही पूर्ण किए, आश्चर्यजनक रूप से सभी तरह के बिज़नेस की सिरमौर बनी है | इस इंडस्ट्री (उद्योग) के प्रोडक्ट (उत्पाद) भी बड़े गज़ब हैं जो कि बच्चे से बूढ़े तक सभी पर असरदार है | मैं इन उत्पादों पर निम्नलिखित तालिका के जरिये प्रकाश डालना चाहूँगा‍‍‍‍
-: मुख्य उत्पाद :-


Ø भावनाऐं
Ø विश्वास
Ø डर
Ø मनोरंजन


-: सह उत्पाद :-
Ø आयुर्वेद पंचगव्य से निर्मित सौंदर्य प्रसाधन
Ø पूजन सामग्री (सुगन्धित अगरबत्ती से हवन सामग्री तक)
Ø ज्वेलरी (कड़े, माला, बाबा छाप अंगूठी लाकेट इत्यादि)
Ø रोग निवारक दवाईयाँ|
Ø अन्य आध्यात्मिक सामग्रियाँजैसे‍  किताबें, कैसेट, सी.डी., प्रवचन माला, महाराज जी की चालीसा और आरती आदि |
        उपर्युक्त उत्पाद सूची में हम देखते हैं मुख्य और सह उत्पाद इन दो वर्गों में उत्पादों को बाँटा गया है, असल मुख्य उत्पाद वो उत्पाद हैं जो इस बिज़नेस की आधारशिला हैं, और सह उत्पाद महात्मा की लोकप्रियतानुसार लाभ अर्जित करते हैं, एवं व्यासपीठ वास्तव में इस बिज़नेस के CEO की कुर्सी है जहाँ से बड़े ही सुंदर ढ़ंग से इन उत्पादों को सीधे अंतिम उपभोक्ता या ग्राहक तक पहुँचाया जाता है|
        कोई यहाँ कहानियाँ बेच रहा है, कोई भजन और कोई ध्यान| कोई कुण्डली जाग्रत करवाने की दुकान जमाऐ हुए है, तो कोई साक्षात ईश्वर से मुलाकात कराने और मोक्ष की प्राप्ति करवाने का "वचन" बेच रहा है| ये सभी तो वे उत्पाद हैं जो सभी के सामने जाहिर हैं और अन्य कई उत्पाद और सेवाऐं ऐसी हैं जो हमें कुछकुछ दिनों के अन्तराल से समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों के खुलासों में ही ज्ञात हो पाती हैं|
        अन्य औपचारिक बातों को यहीं पर विराम देते हुए मैं मुद्दे की बात पर आना चाहूँगा | वास्तव में यदि देखा जाए तो हमारे आसपास फैले हुए इस बिज़नेस ने किस तरह से हमें घेरा हुआ है, और आश्चर्य होता है ये सोचकर की वर्तमान तथाकथित "कम्प्यूटर युगीन" एवं शिक्षित नई पीढ़ी भी इन सारे चक्रव्यूहों में फँसी हुई है| धर्म के नाम पर चल रहे इस धंधे में मोह माया से दूर होने का ज्ञान देने वाले हमारे "सम्माननीय" संत और महात्मा मलाई खा रहे हैं, जिन्होनें आश्रमों के नाम पर चंदा वसूल कर करके पाँच सितारा होटलनुमा आश्रम और अरबों रूपए की ज़मीन और अन्य संपत्तियाँ एकत्र की हुई हैंइससे एक बात तो निश्चित है कि किसी भक्त की समस्याऐं खत्म हो या हो, कोई भक्त भवसागर को पार करे या करे परंतु महात्मा जी के पुत्र, पुत्री और अन्य करीबी जरूर पार पा लेंगे | ये महात्मा जिन्हें समाज को सच का रास्ता दिखाना चाहिये, गलतफहमियों, अंधविश्वास तथा कुप्रथाओं को दूर करना चाहिये वे ही जनसाधारण को "सत्यनारायण" की कथा में उलझाए हुए हैं, जिसमें "श्री सत्यनारायण" किसी भगवान या अलौकिक शक्ति के रूप में तो नहीं अपितु एक बेहद ही हठी तानाशाही साहूकार प्रतीत होते हैं|
        यदि कलावती ने प्रसाद नहीं लिया तो उसके पति को नाव सहित जल में अलक्षित (गायब) कर दिया, जब तक लीलावती ने कथा नहीं की तो उसका सब कुछ लुटवा दिया, चोरी करवा दिया और पति सहित निर्दोष दामाद को भी झूठे आरोप में जेल में ठुसवा दिया, और जैसे ही इधर लीलावतीकलावती ने कथा की तत्काल "श्री सत्यनारायण जी" राजा के सपने में पहुँच कर उसे उसका राजपाट चौपट करने की धमकी देकर चमका आये और अपने चमचों को जेल से छुड़वा लिया|                       
        इस तरह के किस्से और कथाओं से हमारे धर्म ग्रंथ भरे पड़े हैं, जिनमें देवीदेवताओं का भगवत् स्वरूप, उनके क्षमा, दया, करूणा के गुण तो कहीं दिखाई ही नहीं देते ! वे तो सिर्फ तानाशाहों की तरह ही संपूर्ण कथा में छाए रहते हैं, और इतने सालों में मुझे तो ये ही समझ नहीं आया कि वास्तव में वो कथा कहाँ है जो शतानन्द ने की थी, जिसमें संभवतः सत्यनारायण भगवान का भगवत् स्वरूप रहा हो और इसी तरह वैभव लक्ष्मी की कथा में शीला ने कौन सी कथा की थी कि माँ प्रसन्न हुई ?
        हमारी भेड़चाल और मूर्खता तो यहीं जाहिर हो जाती है जबकि वैभव लक्ष्मी व्रत के उद्यापन में 11 या 21 वैभव लक्ष्मी कथा की किताबें (Original Publication) बाँटने पर ही मनोकामना पूर्ण होने की बात कही गई है| क्या ये किसी चतुर प्रकाशक की चाल मालूम नहीं होती???
        मगर दुःख तो इस बात का है, कि कुकुरमुत्ते की तरह पैदा होते हुए महात्मा और संत भी हमारे बीच रहकर हमारी ऐसी किसी भ्रांति को अब तक दूर नहीं कर पाये, और इनसे आगे भी ये उम्मीद नहीं की जा सकती| असल में ये लोग तो चाहते ही है कि आम जन के मन में डर बैठा रहे ताकि दुकानदारी चलती रहे और अय्याशियों में खलल पड़े | क्योंकि डर और स्वार्थ, आज के वक्त में ये ही दो ऐसे कारण हैं जिनके चलते 95 फीसदी लोग किसी देवी, देवता, गुरू या दैविक स्थानों पर अगरबत्तीदिया आदि लगाते हैं और माथा टेकते हैं | सभी को पूर्ण विश्वास है कि ऐसा करने से देवीदेवता या तथाकथित गुरू उन्हें संकटों से बचा लेंगे और धनधान्य से घर भर देंगे|
        यहाँ एक बात और मैं आपसे बाँटना चाहूँगा, कि आज ये संत अपने अपने उत्पादों के साथ धर्म के बाजार में मौजूद हैं, यहाँ बड़े ही शर्म की बात है कि "गुरूता" भी एक उत्पाद हो गयी है| गुरूता इस बाजार में आज खुलेआम बिकती है, जिसकी जेब में जितना धन है वो अपने स्तर के अनुसार गुरू का चयन कर सकता है और अपने लिये एक श्रेष्ठ गुरू खरीद सकता है, उसे बस निश्चित रकम की चिट्ठी बनवाकर शिविर में मौजूद होना पड़ता है | घबराने वाली कोई बात यहाँ नहीं होती क्योंकि ये गुरू, शिष्य की कभी कोई परीक्षा नहीं लेते ये तो बस गुरूदक्षिणा लेते हैं | लाखों शिष्यों के बीच उनके पास कभी आपसे रू रू होने और आपकी समस्या को जानने का वक्त नहीं होता, हाँ मगर ये आश्वासन जरूर दिया जाता है, कि अगर आपने मन से अपने गुरू को याद किया तो हर संकट के समय वो आपके साथ होंगे और अगर संकट आपको लील गया, तो जरूर आपने गुरू की पूजा अर्चना, भेंट में कोई कसर छोड़ी होगी, पूरे मन से याद नहीं किया होगा | इसी तरह धनवानों के भगवान कहे जाने वाले "श्रीजी" के मंदिरों में तो चढ़ावे की राशि के हिसाब से प्रसाद दिया जाता है बड़ी राशि बड़ा लड्डू, छोटी राशि छोटा लड्डू|
        इन सारे उपक्रमों के चलते इस धर्म के धंधे के कारण जो कुछ गिने चुने वास्तविक संत हैं भी उन्हें भी कई बार आलोचना और संदेह का पात्र बनना पड़ता है...घोर कलियुग है| हालाँकि ये विषय इतना विस्तृत है कि इस पर 200 पृष्ठ का लेख भी आसानी से लिखा जा सकता है संतो के विवरणों के साथ| मगर यहाँ मेरा उद्देश्य सिर्फ इस ओर आप सभी का ध्यान आकृष्ट करना मात्र ही है, मैं अपने विचार किसी पर थोप नहीं सकता, अंतिम निर्णय तो आप ही के हाथ में है कि आप अपनी नई पीढ़ी के लिए किस तरह का आधार तैयार करना चाहते हैं | झूठ और मक्कारी से भरा हुआ या बहते पानी की तरह साफ और सच्चा |
        वैसे ऊपर लिखी हुई सारी बातें और तथ्य अपनी जगह ठीक हैं, मगर अगर मैं खुद को एक बेरोजगार एम.बी.. की नज़र से देखूँ, तो धर्म का धंधा बुरा विकल्प नहीं होगा |

"जय राम जी की बोलना पड़ेगा भैया "

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