शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

दृष्टियाँ



         ज्योतिष के प्रारंभिक अध्ययन के समय हमें यह तो बताया जाता है कि किस ग्रह की कौन सी दृष्टि होती है मगर क्यों होती है और क्या होती है यह कोई नहीं बताता । ऐसे में तार्किक दृष्टिकोण वाले मेरे जैसे कई विद्यार्थी विवादित विषयों के संदर्भ में बड़ी ही असमंजस की स्थिति में आ जाते हैं कि आखिर वे किस ओर जायें, किस नियम को सत्य मानते हुए आत्मसात करें । मैनें अपने अब तक के ज्योतिषीय अध्ययन में यही पाया है कि सब विवादों और नियमों को पढ़ने के बाद भी स्वयं उनका विश्लेषण करना और अपने निष्कर्ष के आधार पर ही तर्कों को स्वीकृत करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा । यह लेख भी मेरा स्वयं का एक विश्लेषण मात्र है पाठकों के अपने मत हो सकते हैं ।
          वैदिक ज्योतिष में ग्रहों के प्रभाव के अध्ययन के लिए उनकी दृष्टियों का अध्ययन किया जाता है, और इस प्रकार के अध्ययन के लिये सभी ग्रहों की दृष्टियों का उल्लेख ज्योतिषीय ग्रंथों में मिलता है जो कि इस प्रकार है...

ग्रह                    दृष्टियाँ

सूर्य                       
चंद्र                       
बुध                       
शुक्र                       
मंगल                      ४,७,८
गुरू                        ५,७,९
शनि                       ३,७,१०

          इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी ग्रह अपने से सप्तम भाव को तो देखते ही हैं मगर मंगल, शनि, और गुरू को कुछ विशेष दृष्टियाँ दी गई हैं । यहाँ हमने राहु और केतु की दृष्टि का कोई जिक्र नहीं किया है, क्योंकि राहु और केतु की दृष्टियों के संबंध में हमेशा ही विवाद की स्थिति बनी रही है । और इसका बड़ा ही स्वाभाविक कारण यह है कि राहु और केतु दोनो ही छाया ग्रह हैं । ये ग्रह ब्रह्माण्ड में स्थित दो संवेदनशील बिन्दु मात्र ही हैं और भौतिक रूप से ब्रह्माण्ड में स्थित नहीं हैं परंतु इन बिन्दुओं के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण इन्हें ग्रह रूप में स्वीकार तो किया गया मगर सिर्फ छाया ग्रह ही माना गया है । कुछ ज्योतिषीय ग्रंथों में जहाँ राहु और केतु की दृष्टियों का उल्लेख मिलता है वहीं कई अन्य प्राचीन ग्रंथों में राहु और केतु की दृष्टि के संबंध में कोई बात नहीं कही गई है । इस बारे में हम विस्तृत चर्चा आगे करेंगें ।
          सर्वप्रथम यह समझना बेहद जरूरी है कि आखिर ये दृष्टि है क्या चीज़ ? मेरे विचार में दृष्टियाँ वास्तव में ग्रहों की परावर्तित किरणें हैं । ये किरणें ठीक उसी प्रकार हैं जैसे किसी आईने से Reflect होने वाला सूर्य का प्रकाश । ये दृष्टियाँ भी निश्चित ही ग्रह पिण्डों के माध्यम से प्रकाश का Reflection मात्र ही हैं । मगर इस Reflection के सिद्धांत में भी भेद हैं जैसे आंतरिक ग्रहों की सिर्फ सप्तम दृष्टि और बाह्य ग्रहों की विशेष दृष्टियाँ, ऐसा क्यों ? इसे जरा तार्किक दृष्टि से समझते हैं... जब हम किसी Subject को करीब से देखते हैं तो हमारा देखने का दायरा काफी सीमित होता है और ज्यों ज्यों हम उससे दूर होते चले जाते हैं त्यों त्यों दृष्टि का दायरा विस्तृत होता चला जाता है और हम उस Subject के आसपास की वस्तुओं को भी देख पाते हैं । इसी प्रकार आंतरिक ग्रह पिण्डों का दायरा सीमित होता है तथा उनकी सिर्फ सप्तम दृष्टि ही होती है । मगर जब बात बाह्य पिण्डों की होती है तब इनका दायरा बड़ा होता चला जाता  है अर्थात इनका Reflection अधिक विस्तृत क्षेत्र पर होता है और इसीलिये इन्हें विशेष दृष्टि प्रदान की गई है । यहाँ भी मंगल और गुरू का दृष्ट क्षेत्र लगभग बराबर ही होता है मगर इनकी दृष्टियों में अंतर की वजह शायद इनके अक्ष की स्थिति ही होगी, इनकी दृष्टियाँ क्रमशः ४,७,८ और ५,७,९ होती हैं अर्थात् ५ भावों तक का मगर शनि चूँकि सर्वाधिक दूर स्थित है इसलिए इसका दृष्टि क्षेत्र सर्वाधिक विस्तृत है जो कि ३रे भाव से १०वें भाव तक अर्थात् ८ भावों तक फैला होता है ।
          अब यदि राहु और केतु के विवाद की बात की जाए तो पहले इनके आधार स्वरूप को जानना चाहिये । राहु और केतु छाया ग्रह हैं कोई भौतिक पिण्ड नहीं । यदि राहु और केतु का पौराणिक कहानियों की दृष्टि से विचार किया जाए तो भी राहु सिर और केतु धड़ है इस प्रकार अगर दृष्टि हो भी तो वह सिर्फ राहु की ही होनी चाहिये केतु की नहीं । लेकिन यहाँ एक और नियम उलझन को और भी बढ़ा देता है, कुछ ग्रंथों के अनुसार राहु केतु की दृष्टि गुरू के समान होती है अर्थात् ५,७,९ । मगर ये कैसे संभव है ? ज्योतिष के प्रारंभिक अध्ययन में हमने पढ़ा है कि राहु शनि और केतु मंगल के समान होता है, तब तो अगर इनकी दृष्टि हो भी तो राहु की शनि के समान और केतु की मंगल के समान होना चाहिए, यहाँ गुरू के समान दृष्टि होना कम से कम मेरी समझ के तो परे ही है ।
          अब अगर हम अपने Reflection वाले वैज्ञानिक और तार्किक सिद्धांत की बात करें तो राहु केतु दोनों ही छाया ग्रह है ये पिण्ड रूप में हैं ही नहीं तो फिर ये किसी भी प्रकाश को परावर्तित कैसे कर सकते हैं । छाया ग्रह को और भी अधिक सूक्ष्मता से विश्लेषित किया जाए तो छाया तो उस स्थान को कहा जाता है जहाँ प्रकाश आ ही नहीं पा रहा हो और अगर प्रकाश आता तो वह स्थान छाया हो ही नहीं सकता था । इस प्रकार छाया प्रकाश का एकदम विपरीत स्वरूप है तो भी यह किसी भी तरह के प्रकाश को Reflect कैसे कर सकता है और छाया का अपना कोई Reflection नहीं होता है ।
          निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि राहु और केतु की दृष्टियाँ न होने के भरपूर तर्क हमारे पास उपलब्ध हैं और हमें भेड़ चाल न चलते हुए अपने विश्लेषण पर अधिक विश्वास करना चाहिये ।

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

भावात् भावम्


                   भावात् भावम् अर्थात भाव का भाव । वैदिक ज्योतिष में भावात् भावम का सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसे ठीक से समझना भी बेहद जरूरी है । पहले तो यह समझना जरूरी है कि यह सिद्धांत होता क्या है और किस तरह काम में लाया जाता है । कुण्डली में किसी भी भाव से से उतने ही भाव आगे गिनने पर जो भाव आता है वह भावात् भावम के सिद्धांतानुसार उस भाव के कारकत्वों के फल देने में भी सक्षम होता है जैसे नवम् भाव पंचम से पंचम होने के कारण पंचम भाव के कारकत्वों के फल देने में भी सक्षम होता है । कुण्डली में भावात् भावम के सिद्धांत के प्रयोग से भावों के प्राथमिक कारकत्वों में कुछ द्वितीयक कारकत्व भी जुड़ जाते हैं और वे किसी भी भाव के महत्व को और भी बड़ा देते है । यहाँ कुछ भाव अपनी विशेष स्थिति के कारण एक से अधिक भावों के कारकत्वों का प्रतिनिधित्व करने के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में इन विशेष भावों का विचार करते समय बड़ी ही सावधानी से विचार करना अनिवार्य हो जाता है । मेरे लिये एक समय में ये बात समझना बड़ा ही मुश्किल हो रहा था कि एकादश भाव अशुभ या पापी क्यों कहा जाता है जबकि यह लाभ भाव है और लग्न के लिये लाभ भाव बुरा कैसे हो सकता है, मगर कुछ विद्वानों ने समय समय पर तर्क दिये कि मानव का उद्देश्य ब्रह्म की ओर बढ़ना है अगर वो लाभ में उलझ जायेगा तो ये हानि ही है मगर ये बात मेरे गले के नीचे कभी ठीक से उतर नहीं सकी । ठीक इसी तरह तृतीय भाव भी छोटे भाई बहनों, मित्रों, साहस, शौक आदि का प्रतिनिधित्व करता है तो फिर ये भाव बुरा कैसे हो सकता है । मगर यूँ ही बैठे बैठे विचार करते समय मुझे समझ आ गया कि वास्तव में इसके पीछे भावात् भावम् का सिद्धांत ही है जिसके अनुसार कुछ अति महत्वपूर्ण भावों में तृतीय और एकादश भी आते हैं । ये अति महत्वपूर्ण भाव निम्न प्रकार हैं ....
प्रथम भाव‍‍‍ - प्रथम भाव प्रथम से प्रथम और सप्तम से सप्तम होता है जिसके कारण ये अतिमहत्वपूर्ण हो जाता है ।

तृतीय भाव - यह भाव द्वितीय से द्वितीय और अष्टम् से अष्टम् हो जाता है यहाँ द्वितीय भाव मारक होता है और अष्टम् भाव भी कुण्डली का रंध्र स्थान कहा जाता है । ऐसे में तृतीय भाव इन दोनों ही अशुभ भावों के कारकत्वों के साथ होने के कारण अत्यंत अशुभ हो जाता है ।

पंचम भाव - यह भाव तृतीय से तृतीय और नवम से नवम होता है । तृतीय भाव साहस का और नवम पिता और धर्म का स्थान है इस प्रकार पंचम भाव इन दोनों भावों के कारकत्व के साथ होने पर अतिमहत्वपूर्ण हो जाता है ।

सप्तम भाव - यह भाव चतुर्थ से चतुर्थ और दशम् से दशम् होता है । चतुर्थ भाव सुख का और दशम कर्म का है । सप्तम भाव केन्द्र भी है और मारक भी मगर ये अपने साथ चतुर्थ और दशम जैसे शुभ भावों के कारकत्व रखता है और अतिमहत्वपूर्ण भाव हो जाता है ।

नवम भाव - यह भाव पंचम से पंचम और एकादश से एकादश भाव होता है । पंचम भाव पूर्व पुण्यों का भाव होने के साथ ही त्रिकोण भी है तथा एकादश भाव लाभ स्थान है ही साथ में नवम् भाव स्वयं भी धर्म और भाग्य का स्थान है अतः नवम भाव कुण्डली में बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है ।

एकादश भाव - यह भाव स्वयं तो लाभ स्थान है मगर दो बेहद अशुभ भावों के कारकत्व भी रखने के कारण अशुभ कहा जाता है । यह भाव षष्ठम से षष्ठम और द्वादश से द्वादश है और इसी कारण एक अशुभ और अतिमहत्वपूर्ण विचारणीय भाव है ।

                   इस तरह हम देखते हैं कि किसी भी भाव से संबंधित फलों के अध्ययन के लिये उन भावों पर भावात् भावम के सिद्धांत का प्रयोग करना बहुत ही महत्वपूर्ण है । अतः इस सिद्धांत का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग फलित कथन में सटीकता प्रदान करता है ।

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

पाण्डे जी



           आज आफिस में बहुत काम था सो मुझे अच्छी तरह से रगड़ा गया, परिणाम स्वरूप घर पहुँचते पहुँचते बहुत देर हो चुकी थी और थकान भी बहुत थी । पूरा बदन इतना टूट रहा था कि खाना खाने के लिए होटल तक भी जाने की स्वीकृति नहीं नहीं दे रहा था, मगर भूख भी जबरदस्त लग रही थी और पेट ये बात चीख चीख कर कह रहा था । असमंजस की स्थिति में बीच का रास्ता निकाला गया और थोड़े से चने खाकर पेट को गुमराह कर दिया । अब तो बस सो जाने की इच्छा हो रही थी । मैं बिस्तर की ओर बड़ा नींद अपनी बाँहें फैलाये मेरा ही इंतज़ार कर रही थी । कुछ ही क्षणों में मैं गहरी नींद के आगोश में समाने ही वाला था, ख्वाबों और ख्यालों के सागर में डुबकी लगाने ही वाला था कि तभी एक कर्कश आवाज़ ने मुझे कल्पनाओं के आलिंगन से खींचकर फिर से हकीकत में ला खड़ा किया । ज़रा ध्यान दिया तो दरवाज़े पर दस्तक के साथ बराबर सुना जा सकता था "बेटा सो गए क्या ?" दाँत पीसते हुए मैं बिस्तर से उठा ये कर्कश ध्वनि हमारे मकान मालिक की थी । जिन्हें सो जाने के बाद बंदे को उठाकर यह पूछने की कि "बेटा सो क्या...?" बिमारी सी थी, पर मजबूरी का नाम महात्मा "गाँधी"  दरवाज़ा तो खोलना ही पड़ता । बस ! इसके बाद तो आप चाहे कितने ही संकेत दें कि आप बहुत थके हुए हैं और सोना चाहते हैं मकान मालिक पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा । उस पर करेला वो भी नीम चढ़ा हमारे मकान मालिक शौकिया कवि भी, तो बिना दो चार उबाऊ कवितायें पूरी तरह सुनाए, आपके दिमाग की एक एक बूँद निचोड़े उनका उठना असंभव । वे हर कविता ये कहकर सुना दिया करते मतलब कि थोप दिया करते कि बस ये अंतिम चार पंक्तियाँ और ।
          मकान मालिक वो व्यक्ति होता है जो अपने किराएदारों को अपनी जागीर समझने में कोई संदेह नहीं रखता और उस पर अपने जायज़ नाजायज़ नियम और इच्छाऐं थोपने को वो अपना अधिकार समझता है । खैर जो भी हो आप उन्हें झेलें ये आपकी मजबूरी है । वास्तव में मकान मालिक में नेताओं के गुण भी कम नहीं होते । बारिश के दिनों मे आपके कमरे में जगह जगह से पानी चू रहा है और शिकायत करने पर तुरंत ये आश्वासन दिया जाता है कि कारीगर से बात कर ली है, दो तीन दिन में आकर पलास्तर कर जाएगा । पर वो खूबसूरत दिन आये तो...!बारिश बीत जाएगी मगर कारीगर..... ऊँ.......हुँह...!
          मैनें अब तक जितने भी कमरे बदले हैं और जितने भी मकान मालिकों से मेरा पाला पड़ा है, यह बात स्पष्ट रूप से सामने आयी है कि अधिकांश मकान मालिक पक्के बीवी के गुलाम होते हैं । वे वैसा ही करते हैं जैसा उन्हें आदेश दिया जाता है । अब हमारे पाण्डे जी को ही ले लो, ये क्या किसी मनमोहन सिंह से कम हैं । भागदौड़ करके सारा काम ये करते जरूर हैं, मगर इनकी बागडोर सोनिया रूपी घर बैठी इनकी धर्मपत्नी के हाथ में ही है । कोई भी काम जैसे किसका किराया बढ़ाना है या कम करना है, किसे कमरा देना है, किससे खाली कराना है आदि आदि ये अपनी धर्मपत्नी की आज्ञानुसार ही करते हैं । कभी किराया देने में ज़रा दो तीन दिन देरी हो जाये तो अपनी समस्याऐं गिनवाना उनका पहला मनपसंद काम होता है । मानो वो सिर्फ हमारे ही किराये पर जिंदा हों, हम न होते तो वो कब के कर्ज़ में डूबकर आत्महत्या कर चुके होते ।
          पाण्डे जी का आवास किराये पर उठाये मकान से कुछ दूरी पर है । इसीलिए उन्हें हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती है कि कहीं कोई लड़का कोई कमरा उठाकर तो नहीं ले भगा ! इसलिए वो वक्त बेवक्त आकर अपनी तसल्ली कर लिया करते हैं । वे बावड़ी के भूत की तरह भटकते हुए कभी भी यहाँ पहुँच सकते हैं, चिलचिलाती धूप में दोपहर के २ बजे या रात को ३ ४ बजे । कभी कभी इनकी इस तरह की हरकतों के पीछे सोचनें में आ ही जाता है कि वाकई इन्हें मकान की ही चिंता है या कोई और ही कारण है ? हो सकता है इसके पीछे मियाँ बीवी के बीच उत्पन्न कोई विषम परिस्थितियाँ हो । खैर हमें उस से क्या ।
          कभी पाण्डे जी शहर से बाहर कहीं तफरीह को गए हों तो भी उनके लघुरूप, उनके पुत्ररत्न से बच पाना नामुमकिन है । आप उसे कितना ही दुत्कार कर भगाना चाहें, पर उसके वहीं पर जमें रहकर अपने संपूर्ण दाँतों के पुनः पुनः दर्शन कराने से आपको उसके पाण्डे पुत्र होने का पूर्ण यकीन हो ही जाता है । शुक्र है कि वो भी कवि नहीं है, पर वो है, ये क्या कम है । वैसे तो पाण्डे जी कि अनुपस्थिति में नल आने पर वो टंकी भरने ही आता है, पर हमारा कमरा छत पर ही होने की वजह से वो हमारे ही गले पड़ता है, और दु्र्भाग्य से मुझे ही उस वक्त उस बुरे नक्षत्र के दुष्प्रभाव का भागी बनना पड़ता है । दोनों बाप बेटों के एक साथ आने की तो कल्पना करके भी मैं सिहर उठता हूँ ।
          अब कल ही की तो बात है वो टंकी भरने आया था, सो मोटर चालू कर हमारे कमरे में आकर पसर गया, उसके आते ही मैनें उसे भगाने के लिए कहा  "क्या बे ! फिर आ गया दिमाग चाटने ।" इतना सुनते ही वो तो जाने कि बजाए किसी घटिया दंतमंजन का विज्ञापन करने लगा । खीझ तो ऐसी आई कि उठकर चार छः चाँटे चिपका दूँ और लगे हाथ ही ये दाँत भी तोड़ दूँ । पर क्या करूँ, मई के महीने में एक दिन भी सामने बगीचे में तंबू डालकर नहीं रह सकता, इसलिए बस दाँत पीसकर ही रह गया ।
          पाण्डे जी को ये मकान लिए करीब करीब आठ दस महीने हो चुके हैं, और पिछले लगभग सात महीनों से हम देख रहे हैं कि वो हर दूसरे तीसरे दिन अपने किसी रिश्तेदार को मकान दिखाने जरूर लाते हैं । पता नहीं ये रिश्तेदार भी घर से फालतू होते हैं या मजबूर । खैर ! पाण्डे जी जब भी किसी रिश्तेदार को मकान दिखाने आते हैं, अपनी भावी योजनाओं की विस्तृत जानकारी अवश्य देते ही हैं । उसमें हमें दिए गए आश्वासन भी शामिल होते हैं । अब देखने वाली बात ये है कि पहले आश्वासन पूरे होते हैं या हमारी अवधि । खैर छोड़िये पाण्डे जी तो ऐसा केरेक्टर हैं जिनके बारे में जितनी चर्चा की जाए उतनी ही कम है, जितने लेख लिखे जाऐं उतने ही कम हैं, कई कई ग्रंथ इनके नाम पर लिखे जा सकते हैं । मगर हम क्यों लिखें ! हम थोड़े ही पाण्डे जी हैं....! नमस्कार...  
(19/07/2007 Indore)

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

पति बनाम हसबैण्ड


पने ख्यालों के बाग में टहलते हुए आज सुबह ही मेरी नज़र अचानक दूर कोने में चुपचाप बैठे इस विषय पर पड़ी और इसने अनायास ही अपनी मासूमियत से मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया । और फिर मेरी इस विषय से काफी देर तक गुफ्तगू होती रही । हमारी चर्चा का मुख्य बिन्दु पति पत्नी जैसी संज्ञा का आज के वक्त में सार्थक होना या न होना था । गुफ्तगू में क्या कुछ खास बातें हुई वो सारांशतः आगे उल्लेखित कर रहा हूँ ।

          अगर पति ‌और पत्नी शब्दों के गूढ़ अर्थों की बात की जाये तो पति का शाब्दिक अर्थ होता है स्वामी और पत्नी अर्थात् पति+नी से स्पष्ट है जो पति नहीं है ! मतलब जो स्वामी नहीं है । ये शेर और शेरनी की तरह ही है जिसमें एक शेर है और दूसरी शेर+नी है मतलब शेरनी है । मगर अगर आज महिलाओं के बढ़ते हुए वर्चस्व वाले समाज में, (मेरे ख्याल से इसे भारतीय समाज भी कह दिया जाये तो गलत नहीं होगा ।) इन शब्दों की सार्थकता की बात की जाए तो शायद ये बहुत ही अतार्किक शब्द साबित होंगे । इनके अर्थों के समझ आते ही महिला मोर्चा के उत्तेजित होने खतरा बराबर बना रहता है जिसका साइड इफेक्ट पति नाम के प्राणी पर होना लाज़मी है । कोई भी महिला आज के वक्त में ऐसे विवादास्पद अर्थ होने के कारण इन शब्दों से अलंकृत नहीं होना चाहेगी । और क्यों हो ? जब वो अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर घर परिवार की सभी ज़िम्मेवारियों को बखूबी निभा रही है तो वो पत्नी क्यों कहलाना चाहेगी भला ? वो दिन लद चुके जब पुरूष प्रधान समाज में पुरूष स्वयं को पति कहलाकर बड़ा ही गर्वित सा महसूस करते थे । अब तो ज़माना हसबैण्ड का है ।


          हसबैण्ड जिसके लिये हँसना मजबूरी है चाहे उसे कितना ही बजा लिया जाये । हसबैण्ड की कोई पत्नी नहीं होती, उसकी "वाईफ" होती है ये शब्द अंग्रेजी के ही एक और शब्द "नाइफ" से काफी मिलता जुलता है । खैर ये भाषा की अपनी परेशानी है और हमारी चर्चा से बाहर का विषय भी । अगर बीते ज़मानें की बात करें तो पति की विशेषता ये होती थी की उसका अपनी पत्नी पर पूरा नियंत्रण हुआ करता था, मजाल है कि पति की आज्ञा के बिना पत्नी घर की दहलीज़ के बाहर कदम भी रख दे ! और पत्नी की इतनी हिम्मत की वो अपने पतिदेव का नाम भी अपनी ज़बान से ले और इसीलिए ऐजी, ओजी जैसे सर्वनामों का प्रयोग प्रचलित था और बच्चे हो जाने के बाद फिर बच्चों के नाम से... गोलू के पापा, मुन्नी के पापा आदि । हसबैण्ड वाईफ के मामले में एकदम उल्टा ही देखने को मिलता है... हसबैण्ड को सर्वनामों का प्रयोग करना पड़ता है, जैसे बाबू, जानू, शोना, बेबी आदि आदि और वाईफ सीधे कहती है..... सुन बे !
          अब इन हालातों में पति और पत्नी शब्द सार्थक कैसे कहे जा सकते हैं यहाँ तो हसबैण्ड और वाईफ ही अधिक उपयुक्त मालूम होते हैं । और फिर भी अगर पति पत्नी शब्द का प्रयोग किया ही जाए तो संज्ञा के बदल देने की जरूरत है मतलब कि हसबैण्ड को पत्नी तथा वाईफ को पति की संज्ञा से नवाज़ा जाना चाहिये तभी इन शब्दों की सार्थकता सिद्ध होगी । वरना तो ये घर में बवाल का कारण ही बन सकते हैं । मेरे लिए ये बड़ी ही खुशी की बात है कि मैं अब तक कुआँरा ही हूँ, वरना पत्नी और हसबैण्ड शब्दों में से किसी एक का चयन करना बड़े ही धर्मसंकट की बात हो जाती और स्थिति कुछ यूँ बनती... "एक ओर अजगर ही लखि, एक ओर मृगराय । विकल बटोही बीच ही परयो मूर्छा खाए ।।"