आज आफिस में बहुत काम था सो मुझे
अच्छी तरह से रगड़ा गया, परिणाम स्वरूप घर पहुँचते पहुँचते बहुत देर हो चुकी थी और थकान
भी बहुत थी । पूरा बदन इतना टूट रहा था कि खाना खाने के लिए होटल तक भी जाने की स्वीकृति
नहीं नहीं दे रहा था, मगर भूख भी जबरदस्त लग रही थी और पेट ये बात चीख चीख कर कह रहा
था । असमंजस की स्थिति में बीच का रास्ता निकाला गया और थोड़े से चने खाकर पेट को गुमराह
कर दिया । अब तो बस सो जाने की इच्छा हो रही थी । मैं बिस्तर की ओर बड़ा नींद अपनी बाँहें
फैलाये मेरा ही इंतज़ार कर रही थी । कुछ ही क्षणों में मैं गहरी नींद के आगोश में समाने
ही वाला था, ख्वाबों और ख्यालों के सागर में डुबकी लगाने ही वाला था कि तभी एक कर्कश
आवाज़ ने मुझे कल्पनाओं के आलिंगन से खींचकर फिर से हकीकत में ला खड़ा किया । ज़रा ध्यान
दिया तो दरवाज़े पर दस्तक के साथ बराबर सुना जा सकता था "बेटा सो गए क्या
?" दाँत पीसते हुए मैं बिस्तर से उठा ये कर्कश ध्वनि हमारे मकान मालिक की थी ।
जिन्हें सो जाने के बाद बंदे को उठाकर यह पूछने की कि "बेटा सो क्या...?"
बिमारी सी थी, पर मजबूरी का नाम महात्मा "गाँधी" दरवाज़ा तो खोलना ही पड़ता । बस ! इसके बाद तो आप
चाहे कितने ही संकेत दें कि आप बहुत थके हुए हैं और सोना चाहते हैं मकान मालिक पर कोई
फर्क नहीं पड़ेगा । उस पर करेला वो भी नीम चढ़ा हमारे मकान मालिक शौकिया कवि भी, तो बिना
दो चार उबाऊ कवितायें पूरी तरह सुनाए, आपके दिमाग की एक एक बूँद निचोड़े उनका उठना असंभव
। वे हर कविता ये कहकर सुना दिया करते मतलब कि थोप दिया करते कि बस ये अंतिम चार पंक्तियाँ
और ।
मकान मालिक वो व्यक्ति होता है जो अपने किराएदारों को अपनी जागीर
समझने में कोई संदेह नहीं रखता और उस पर अपने जायज़ नाजायज़ नियम और इच्छाऐं थोपने
को वो अपना अधिकार समझता है । खैर जो भी हो आप उन्हें झेलें ये आपकी मजबूरी है । वास्तव
में मकान मालिक में नेताओं के गुण भी कम नहीं होते । बारिश के दिनों मे आपके कमरे में
जगह जगह से पानी चू रहा है और शिकायत करने पर तुरंत ये आश्वासन दिया जाता है कि कारीगर
से बात कर ली है, दो तीन दिन में आकर पलास्तर कर जाएगा । पर वो खूबसूरत दिन आये तो...!बारिश
बीत जाएगी मगर कारीगर..... ऊँ.......हुँह...!
मैनें अब तक जितने भी कमरे बदले हैं और जितने भी मकान मालिकों
से मेरा पाला पड़ा है, यह बात स्पष्ट रूप से सामने आयी है कि अधिकांश मकान मालिक पक्के
बीवी के गुलाम होते हैं । वे वैसा ही करते हैं जैसा उन्हें आदेश दिया जाता है । अब
हमारे पाण्डे जी को ही ले लो, ये क्या किसी मनमोहन सिंह से कम हैं । भागदौड़ करके सारा
काम ये करते जरूर हैं, मगर इनकी बागडोर सोनिया रूपी घर बैठी इनकी धर्मपत्नी के हाथ
में ही है । कोई भी काम जैसे किसका किराया बढ़ाना है या कम करना है, किसे कमरा देना
है, किससे खाली कराना है आदि आदि ये अपनी धर्मपत्नी की आज्ञानुसार ही करते हैं । कभी
किराया देने में ज़रा दो तीन दिन देरी हो जाये तो अपनी समस्याऐं गिनवाना उनका पहला
मनपसंद काम होता है । मानो वो सिर्फ हमारे ही किराये पर जिंदा हों, हम न होते तो वो
कब के कर्ज़ में डूबकर आत्महत्या कर चुके होते ।
पाण्डे जी का आवास किराये पर उठाये मकान से कुछ दूरी पर है । इसीलिए
उन्हें हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती है कि कहीं कोई लड़का कोई कमरा उठाकर तो नहीं
ले भगा ! इसलिए वो वक्त बेवक्त आकर अपनी तसल्ली कर लिया करते हैं । वे बावड़ी के भूत
की तरह भटकते हुए कभी भी यहाँ पहुँच सकते हैं, चिलचिलाती धूप में दोपहर के २ बजे या
रात को ३ ४ बजे । कभी कभी इनकी इस तरह की हरकतों के पीछे सोचनें में आ ही जाता है कि
वाकई इन्हें मकान की ही चिंता है या कोई और ही कारण है ? हो सकता है इसके पीछे मियाँ
बीवी के बीच उत्पन्न कोई विषम परिस्थितियाँ हो । खैर हमें उस से क्या ।
कभी पाण्डे जी शहर से बाहर कहीं तफरीह को गए हों तो भी उनके लघुरूप,
उनके पुत्ररत्न से बच पाना नामुमकिन है । आप उसे कितना ही दुत्कार कर भगाना चाहें,
पर उसके वहीं पर जमें रहकर अपने संपूर्ण दाँतों के पुनः पुनः दर्शन कराने से आपको उसके
पाण्डे पुत्र होने का पूर्ण यकीन हो ही जाता है । शुक्र है कि वो भी कवि नहीं है, पर
वो है, ये क्या कम है । वैसे तो पाण्डे जी कि अनुपस्थिति में नल आने पर वो टंकी भरने
ही आता है, पर हमारा कमरा छत पर ही होने की वजह से वो हमारे ही गले पड़ता है, और दु्र्भाग्य
से मुझे ही उस वक्त उस बुरे नक्षत्र के दुष्प्रभाव का भागी बनना पड़ता है । दोनों बाप
बेटों के एक साथ आने की तो कल्पना करके भी मैं सिहर उठता हूँ ।
अब कल ही की तो बात है वो टंकी भरने आया था, सो मोटर चालू कर हमारे
कमरे में आकर पसर गया, उसके आते ही मैनें उसे भगाने के लिए कहा "क्या बे ! फिर आ गया दिमाग चाटने ।"
इतना सुनते ही वो तो जाने कि बजाए किसी घटिया दंतमंजन का विज्ञापन करने लगा । खीझ तो
ऐसी आई कि उठकर चार छः चाँटे चिपका दूँ और लगे हाथ ही ये दाँत भी तोड़ दूँ । पर क्या
करूँ, मई के महीने में एक दिन भी सामने बगीचे में तंबू डालकर नहीं रह सकता, इसलिए बस
दाँत पीसकर ही रह गया ।
पाण्डे जी को ये मकान लिए करीब करीब आठ दस महीने हो चुके हैं,
और पिछले लगभग सात महीनों से हम देख रहे हैं कि वो हर दूसरे तीसरे दिन अपने किसी रिश्तेदार
को मकान दिखाने जरूर लाते हैं । पता नहीं ये रिश्तेदार भी घर से फालतू होते हैं या
मजबूर । खैर ! पाण्डे जी जब भी किसी रिश्तेदार को मकान दिखाने आते हैं, अपनी भावी योजनाओं
की विस्तृत जानकारी अवश्य देते ही हैं । उसमें हमें दिए गए आश्वासन भी शामिल होते हैं
। अब देखने वाली बात ये है कि पहले आश्वासन पूरे होते हैं या हमारी अवधि । खैर छोड़िये
पाण्डे जी तो ऐसा केरेक्टर हैं जिनके बारे में जितनी चर्चा की जाए उतनी ही कम है, जितने
लेख लिखे जाऐं उतने ही कम हैं, कई कई ग्रंथ इनके नाम पर लिखे जा सकते हैं । मगर हम
क्यों लिखें ! हम थोड़े ही पाण्डे जी हैं....! नमस्कार...
(19/07/2007 Indore)
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