सोमवार, 23 जुलाई 2012

Panchhi...

पर हैं पर, परवाज़ को तरसता पंछी,
पिंजड़े में कैद, इक आस को तरसता पंछी,

रोता, चीखता, चिल्लाता हुआ सा,
अपनी ही मधुर आवाज़ को तरसता पंछी,

बरसते बादलों को ठिठक कर देखता,
आँखों ही आँखों में बरसता पंछी,

कोने में सहमा हुआ, चुपचाप सा,
इक अदद् साथ को तरसता पंछी,

सलाखों की कैद में बरसों बरस,
अहसास ए आजादी को तरसता पंछी,

पर हैं पर, परवाज़ को तरसता पंछी,
पिंजड़े में कैद, इक आस को तरसता पंछी........!

    मैं करीब १५‍‍ साल का रहा होगा, जब मैंने १०वीं की परीक्षा दी थी, वो सन् २००१ था । गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो चुकी थी और यही मौसम था जब तोते पेंड़ की पोल में अण्डे दिया करते हैं । मैंने भी जिद पकड़ ली कि मुझे भी एक तोता चाहिये बस । हालाँकि इसके पहले मैं एक खरगोश, दो कछुए, और एक सफेद चूहा अपने पास रख चुका था मगर अब जिद थी तोते की, घर में भी सब परेशान मगर क्या करें, बात कोई बहुत बड़ी भी नहीं थी सो थोड़ी ही मेहनत के बाद तोता रखने की अनुमति मिल गयी । मैनें बड़े उत्साह से पिंजरे को तैयार करने का काम शुरू किया, खुद अपने हाथ से ही पिंजरे की सफाई की और नये रंग में रंग दिया । मगर अब समस्या थी कि तोता लाऐं कहाँ से ? कस्बाई शहर वहाँ ऐसी कोई दुकानें भी नहीं हुआ करतीं बड़े शहरों की तरह जहाँ जानवरों की खरीद फरोख्त की जाती हो । बस कुछ लड़के जो जंगल जाया करते थे और इस काम को करते आए थे उन्हीं से कह दिया कि कोई तोता लाकर दे दो ।
    बहुत दिन बीत गये.. निराशा बड़ती गयी.. मौसम बीतता ही जा रहा था और इस बात की आशंका थी कि अब तो बच्चे बड़े होकर उड़ भी गए होंगे । बहुत उदास सा मैं इस दर्द से निजात पाने के लिए कुछ दिनों के लिए अपने एक रिश्तेदार के यहाँ चला गया । कुछ दिन बाद खबर मिली कि किसी लड़के ने तार पर बैठे एक नौसिखिया तोते को गुलेल से गिरा लिया और मेरे छोटे भाई ने ये देख कर २० रूपए में उससे वो तोता ले लिया है । अहा ! मेरी खुशी का ठिकाना न रहा क्योंकि मैं तो लगभग उम्मीद छोड़ ही चुका था, खैर मैं जल्द से जल्द घर लौटने की तैयारी में लग गया ।




    रोज़ सुबह शाम उसके साथ बातें करना, और नये नये शब्द सिखाने की कोशिश करना.. हर शाम पिंजरे को लेकर बरामदे में या छत पर चले जाना मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन गया । शुरूआत में कुछ वो भी सहमा सा था मगर धीरे धीरे घुल मिल गया । वो कई बार मेरे ही साथ थाली में खाना खाता, जब पिंजरे से बाहर होता तो मैं उसे घर में ही बड़े हॉल में उड़ाया करता था और वो बेझिझक मेरे ऊपर कंधे या सिर पर चढ़कर सो जाता, वो जाग न जाए इस डर से मैं बहुत समय तक बिल्कुल एक ही स्थिति मैं बैठा रहता । मुझे लगता कि वो बहुत खुश है मगर मेरा ये भ्रम समय के साथ जाता रहा जब मैंने उसे नोटिस करना शुरू किया । जब भी शाम को मैं उसे बाहर बरामदे में या छत पर लेकर बैठता वो बहुत बोलता और बड़ा उत्साहित सा लगता मगर वास्तव में वो शायद घर लौट रहे दूसरे परिंदो को देखकर व्याकुल सा हो जाता था । मुझे बात समझ आ रही थी कि मैंने कितनी बड़ी गलती की है । जिसे ऊपर वाले ने उड़ने के लिए पंख दिये हैं आज मेरी वजह से वो पंख होने के बावजूद उड़ नहीं सकता... सिर्फ दूसरों को उड़ते देख सकता है । कई बार मेरे ज़ेहन में आया भी कि मैं उसे आजाद कर दूँ मगर ऐसा करने पर वो मारा जाता... वो उड़ना भूल चुका था, उसके परों में अब वो मजबूती नहीं रही थी ।
    २००३ में मैं अपनी पढ़ाई के लिए इन्दौर चला गया । और मुझे याद है २००६ में एक सुबह वो अपने पिंजरे में गिरा हुआ मिला... वो मर चुका था... अब आज़ाद था । कुछ महीने बाद जब मैं घर पहुँचा तब मुझे पता चला... मुझसे ये छुपाया गया था... मुझे दुःख के साथ कुछ सुकून भी था कि अब वो किसी पिंजरे में नहीं है । मगर वो एक तोता अपनी सारी जिंदगी देकर मुझे ये सिखा गया कि किसी भी परिंदे को कैद करना कितना गलत है, और ये सीख उस छोटी सी जान की यादों के साथ हमेशा मेरे साथ रहेगी... मेरी कोशिश रहेगी कि मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपने इस अनुभव को पहुँचा सकूँ... ताकि कुछ परिंदो को कैद होने से रोक कर या कैद से आजाद होने का कारण बनकर मैं अपनी आत्मा को कुछ सुकून दे सकूँ... पश्चाताप कर सकूँ अपनी जिद का.......!

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