गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

भावात् भावम्


                   भावात् भावम् अर्थात भाव का भाव । वैदिक ज्योतिष में भावात् भावम का सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसे ठीक से समझना भी बेहद जरूरी है । पहले तो यह समझना जरूरी है कि यह सिद्धांत होता क्या है और किस तरह काम में लाया जाता है । कुण्डली में किसी भी भाव से से उतने ही भाव आगे गिनने पर जो भाव आता है वह भावात् भावम के सिद्धांतानुसार उस भाव के कारकत्वों के फल देने में भी सक्षम होता है जैसे नवम् भाव पंचम से पंचम होने के कारण पंचम भाव के कारकत्वों के फल देने में भी सक्षम होता है । कुण्डली में भावात् भावम के सिद्धांत के प्रयोग से भावों के प्राथमिक कारकत्वों में कुछ द्वितीयक कारकत्व भी जुड़ जाते हैं और वे किसी भी भाव के महत्व को और भी बड़ा देते है । यहाँ कुछ भाव अपनी विशेष स्थिति के कारण एक से अधिक भावों के कारकत्वों का प्रतिनिधित्व करने के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में इन विशेष भावों का विचार करते समय बड़ी ही सावधानी से विचार करना अनिवार्य हो जाता है । मेरे लिये एक समय में ये बात समझना बड़ा ही मुश्किल हो रहा था कि एकादश भाव अशुभ या पापी क्यों कहा जाता है जबकि यह लाभ भाव है और लग्न के लिये लाभ भाव बुरा कैसे हो सकता है, मगर कुछ विद्वानों ने समय समय पर तर्क दिये कि मानव का उद्देश्य ब्रह्म की ओर बढ़ना है अगर वो लाभ में उलझ जायेगा तो ये हानि ही है मगर ये बात मेरे गले के नीचे कभी ठीक से उतर नहीं सकी । ठीक इसी तरह तृतीय भाव भी छोटे भाई बहनों, मित्रों, साहस, शौक आदि का प्रतिनिधित्व करता है तो फिर ये भाव बुरा कैसे हो सकता है । मगर यूँ ही बैठे बैठे विचार करते समय मुझे समझ आ गया कि वास्तव में इसके पीछे भावात् भावम् का सिद्धांत ही है जिसके अनुसार कुछ अति महत्वपूर्ण भावों में तृतीय और एकादश भी आते हैं । ये अति महत्वपूर्ण भाव निम्न प्रकार हैं ....
प्रथम भाव‍‍‍ - प्रथम भाव प्रथम से प्रथम और सप्तम से सप्तम होता है जिसके कारण ये अतिमहत्वपूर्ण हो जाता है ।

तृतीय भाव - यह भाव द्वितीय से द्वितीय और अष्टम् से अष्टम् हो जाता है यहाँ द्वितीय भाव मारक होता है और अष्टम् भाव भी कुण्डली का रंध्र स्थान कहा जाता है । ऐसे में तृतीय भाव इन दोनों ही अशुभ भावों के कारकत्वों के साथ होने के कारण अत्यंत अशुभ हो जाता है ।

पंचम भाव - यह भाव तृतीय से तृतीय और नवम से नवम होता है । तृतीय भाव साहस का और नवम पिता और धर्म का स्थान है इस प्रकार पंचम भाव इन दोनों भावों के कारकत्व के साथ होने पर अतिमहत्वपूर्ण हो जाता है ।

सप्तम भाव - यह भाव चतुर्थ से चतुर्थ और दशम् से दशम् होता है । चतुर्थ भाव सुख का और दशम कर्म का है । सप्तम भाव केन्द्र भी है और मारक भी मगर ये अपने साथ चतुर्थ और दशम जैसे शुभ भावों के कारकत्व रखता है और अतिमहत्वपूर्ण भाव हो जाता है ।

नवम भाव - यह भाव पंचम से पंचम और एकादश से एकादश भाव होता है । पंचम भाव पूर्व पुण्यों का भाव होने के साथ ही त्रिकोण भी है तथा एकादश भाव लाभ स्थान है ही साथ में नवम् भाव स्वयं भी धर्म और भाग्य का स्थान है अतः नवम भाव कुण्डली में बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है ।

एकादश भाव - यह भाव स्वयं तो लाभ स्थान है मगर दो बेहद अशुभ भावों के कारकत्व भी रखने के कारण अशुभ कहा जाता है । यह भाव षष्ठम से षष्ठम और द्वादश से द्वादश है और इसी कारण एक अशुभ और अतिमहत्वपूर्ण विचारणीय भाव है ।

                   इस तरह हम देखते हैं कि किसी भी भाव से संबंधित फलों के अध्ययन के लिये उन भावों पर भावात् भावम के सिद्धांत का प्रयोग करना बहुत ही महत्वपूर्ण है । अतः इस सिद्धांत का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग फलित कथन में सटीकता प्रदान करता है ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अछे भाई परतु कुछ एक्साम्प्ल के साथ शिखाना आवश्यक हें

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  2. kis tarah bhavath bhavam kundali ki study karte samay asar karta he wo bhi bataiye bhaiya jii

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