ज्योतिष के प्रारंभिक अध्ययन
के समय हमें यह तो बताया जाता है कि किस ग्रह की कौन सी दृष्टि होती है मगर क्यों होती
है और क्या होती है यह कोई नहीं बताता । ऐसे में तार्किक दृष्टिकोण वाले मेरे जैसे
कई विद्यार्थी विवादित विषयों के संदर्भ में बड़ी ही असमंजस की स्थिति में आ जाते हैं
कि आखिर वे किस ओर जायें, किस नियम को सत्य मानते हुए आत्मसात करें । मैनें अपने अब
तक के ज्योतिषीय अध्ययन में यही पाया है कि सब विवादों और नियमों को पढ़ने के बाद भी
स्वयं उनका विश्लेषण करना और अपने निष्कर्ष के आधार पर ही तर्कों को स्वीकृत करना सर्वाधिक
उपयुक्त होगा । यह लेख भी मेरा स्वयं का एक विश्लेषण मात्र है पाठकों के अपने मत हो
सकते हैं ।
वैदिक ज्योतिष में ग्रहों के प्रभाव के अध्ययन के लिए उनकी दृष्टियों
का अध्ययन किया जाता है, और इस प्रकार के अध्ययन के लिये सभी ग्रहों की दृष्टियों का
उल्लेख ज्योतिषीय ग्रंथों में मिलता है जो कि इस प्रकार है...
ग्रह दृष्टियाँ
सूर्य ७
चंद्र ७
बुध ७
शुक्र ७
मंगल ४,७,८
गुरू ५,७,९
शनि ३,७,१०
इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी ग्रह अपने से सप्तम भाव को तो देखते
ही हैं मगर मंगल, शनि, और गुरू को कुछ विशेष दृष्टियाँ दी गई हैं । यहाँ हमने राहु
और केतु की दृष्टि का कोई जिक्र नहीं किया है, क्योंकि राहु और केतु की दृष्टियों के
संबंध में हमेशा ही विवाद की स्थिति बनी रही है । और इसका बड़ा ही स्वाभाविक कारण यह
है कि राहु और केतु दोनो ही छाया ग्रह हैं । ये ग्रह ब्रह्माण्ड में स्थित दो संवेदनशील
बिन्दु मात्र ही हैं और भौतिक रूप से ब्रह्माण्ड में स्थित नहीं हैं परंतु इन बिन्दुओं
के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण इन्हें ग्रह रूप में स्वीकार तो किया गया
मगर सिर्फ छाया ग्रह ही माना गया है । कुछ ज्योतिषीय ग्रंथों में जहाँ राहु और केतु
की दृष्टियों का उल्लेख मिलता है वहीं कई अन्य प्राचीन ग्रंथों में राहु और केतु की
दृष्टि के संबंध में कोई बात नहीं कही गई है । इस बारे में हम विस्तृत चर्चा आगे करेंगें
।
सर्वप्रथम यह समझना बेहद जरूरी है कि आखिर ये दृष्टि है क्या चीज़
? मेरे विचार में दृष्टियाँ वास्तव में ग्रहों की परावर्तित किरणें हैं । ये किरणें
ठीक उसी प्रकार हैं जैसे किसी आईने से Reflect होने वाला सूर्य का प्रकाश ।
ये दृष्टियाँ भी निश्चित ही ग्रह पिण्डों के माध्यम से प्रकाश का Reflection मात्र ही हैं
। मगर इस Reflection के सिद्धांत
में भी भेद हैं जैसे आंतरिक ग्रहों की सिर्फ सप्तम दृष्टि और बाह्य ग्रहों की विशेष
दृष्टियाँ, ऐसा क्यों ? इसे जरा तार्किक दृष्टि से समझते हैं... जब हम किसी Subject को करीब से
देखते हैं तो हमारा देखने का दायरा काफी सीमित होता है और ज्यों ज्यों हम उससे दूर
होते चले जाते हैं त्यों त्यों दृष्टि का दायरा विस्तृत होता चला जाता है और हम उस
Subject के आसपास की
वस्तुओं को भी देख पाते हैं । इसी प्रकार आंतरिक ग्रह पिण्डों का दायरा सीमित होता
है तथा उनकी सिर्फ सप्तम दृष्टि ही होती है । मगर जब बात बाह्य पिण्डों की होती है
तब इनका दायरा बड़ा होता चला जाता है अर्थात
इनका Reflection अधिक विस्तृत
क्षेत्र पर होता है और इसीलिये इन्हें विशेष दृष्टि प्रदान की गई है । यहाँ भी मंगल
और गुरू का दृष्ट क्षेत्र लगभग बराबर ही होता है मगर इनकी दृष्टियों में अंतर की वजह
शायद इनके अक्ष की स्थिति ही होगी, इनकी दृष्टियाँ क्रमशः ४,७,८ और ५,७,९ होती हैं
अर्थात् ५ भावों तक का मगर शनि चूँकि सर्वाधिक दूर स्थित है इसलिए इसका दृष्टि क्षेत्र
सर्वाधिक विस्तृत है जो कि ३रे भाव से १०वें भाव तक अर्थात् ८ भावों तक फैला होता है
।
अब यदि राहु और केतु के विवाद की बात की जाए तो पहले इनके आधार
स्वरूप को जानना चाहिये । राहु और केतु छाया ग्रह हैं कोई भौतिक पिण्ड नहीं । यदि राहु
और केतु का पौराणिक कहानियों की दृष्टि से विचार किया जाए तो भी राहु सिर और केतु धड़
है इस प्रकार अगर दृष्टि हो भी तो वह सिर्फ राहु की ही होनी चाहिये केतु की नहीं ।
लेकिन यहाँ एक और नियम उलझन को और भी बढ़ा देता है, कुछ ग्रंथों के अनुसार राहु केतु
की दृष्टि गुरू के समान होती है अर्थात् ५,७,९ । मगर ये कैसे संभव है ? ज्योतिष के
प्रारंभिक अध्ययन में हमने पढ़ा है कि राहु शनि और केतु मंगल के समान होता है, तब तो
अगर इनकी दृष्टि हो भी तो राहु की शनि के समान और केतु की मंगल के समान होना चाहिए,
यहाँ गुरू के समान दृष्टि होना कम से कम मेरी समझ के तो परे ही है ।
अब अगर हम अपने Reflection वाले वैज्ञानिक
और तार्किक सिद्धांत की बात करें तो राहु केतु दोनों ही छाया ग्रह है ये पिण्ड रूप
में हैं ही नहीं तो फिर ये किसी भी प्रकाश को परावर्तित कैसे कर सकते हैं । छाया ग्रह
को और भी अधिक सूक्ष्मता से विश्लेषित किया जाए तो छाया तो उस स्थान को कहा जाता है
जहाँ प्रकाश आ ही नहीं पा रहा हो और अगर प्रकाश आता तो वह स्थान छाया हो ही नहीं सकता
था । इस प्रकार छाया प्रकाश का एकदम विपरीत स्वरूप है तो भी यह किसी भी तरह के प्रकाश
को Reflect कैसे कर सकता
है और छाया का अपना कोई Reflection नहीं होता
है ।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि राहु और केतु की दृष्टियाँ न होने
के भरपूर तर्क हमारे पास उपलब्ध हैं और हमें भेड़ चाल न चलते हुए अपने विश्लेषण पर अधिक
विश्वास करना चाहिये ।
बहुत अछे भाई परन्तु इस दृष्टी का अर्थ केसे करे उसपर भी थोडा प्रकास डाले . जेसे गुरु जहा ता हे वहा अछा प्रभाव नहीं देता विगेरे.
जवाब देंहटाएंRonak Ji Please visit http://avyaktvishwas.blogspot.in/2013/01/blog-post.html
हटाएंदिया गया स्पस्टीकरण इस तरह का नहीं है जो दृष्टी का सिद्धांत बनाते समय लिया गया हो - यह स्पस्टीकरण इस तरह का है जैसे इसे किसी भी तरह मिलाना है
जवाब देंहटाएंयदि लेखक या अन्य कोई चाहे तो फेस बुक के ग्रुप https://www.facebook.com/groups/sanatjain/ में चर्चा कर सकता है
जी सनत जी आपका कहना एक तरह से ठीक ही है ये सिर्फ प्रचलित अवधारणा को देखने का एक नज़रिया ही है ।
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