जय
जय जय विशु देव अति ज्ञानी ।
बुद्धि तुमरी अति सयानी
।। १।।
सहज
भाव से तुम हो आये ।
सहज स्वभाव ही तुमने पाये ।।२।।
शिशुकाल जब सब रोते हैं ।
तुमने कम न भौकड़े जोते हैं ।।३।।
नाम "विश्वास" है तुमने पाया ।
बाल्यकाल "लालू" कहलाया ।।४।।
जब हुआ जन को ज्ञान प्रभु का ।
"लालू" से "विशु" नाम कराया
।।५।।
बचपन से तुम अत्यंत भोले ।
किसी से कुछ भी कम ही बोले ।।६।।
तुम्हरी महिमा कोई जान न पाया ।
अजब निराली तुम्हरी माया ।।७।।
सब
संकट के तुम हो करता ।
दुःख का गड्ढा न तुमसे भरता ।।८।।
तुमने पाई अद्भुत काया ।
मोमबत्ती की हो तुम छाया ।।९।।
तुम्हरे वचन न जन मन भाते ।
कम ही लोग सहन कर पाते ।।१०।।
प्रभु स्वयंभू तुम कहलाये ।
नाम के आगे "महाराज" लगाये ।।११।।
तुमसे कोई पार न पावे ।
राय तुम्हें न किसी की भावे ।।१२।।
वेद पुराण न तुमने बाँचे ।
कुटिल बुद्धि से सब को जाँचे
।।१३।।
तुम्हरी लीला समझ न आई ।
जब हुई तुमसे कौनु भलाई ।।१४।।
चरण फचाकड़ा तुमने पाये ।
धोने वाले भी
पछतायें ।।१५।।
ध्वनि तुम्हारी अति मधुर है ।
जैसे कोई कौवा चिल्लाये ।।१६।।
फूल तुम्हें बेशरम का भाये ।
अगरबत्ती से मन हर्षाये
।।१७।।
तुम्हरी किरपा जिन पर होई ।
तिन पर किरपा करे नहीं कोई ।।१८।।
आलस को तुम शीश धरे ।
फिर कोई कुछ भी करे ।।१९।।
कहते "सनकी" लोग तुम्हें ।
जान गये जो इस लोक में ।।२०।।
पेड़ पौधे पंछी सब प्यारे ।
तुमको अपने लगते सारे ।।२१।।
लौकी कद्दू तुम्हें न भावे ।
आलू तुमको बहुत लुभावे ।।२२।।
तुमरा न है कोई ठिकाना ।
कब कहाँ हो
किसने जाना ।।२३।।
जग में जगह न कोई भाये ।
नरसिंहगढ़ ही धाम लगाये ।।२४।।
भूख प्यास से न कोई नाता ।
पानी तुमको खूब सताता ।।२५।।
तुम्हरे भजन जो नित्य करे ।
उसे रोज़ सौ जूते
पड़ें ।।२६।।
तुमसे बड़ा न कोई ज्ञानी ।
जग में गूँजे ये झूठी कहानी ।।२७।।
बिपदा तब भक्तन पे आये ।
जब कोई तुमरा ध्यान लगाये ।।२८।।
बात दिल में रखे नहीं कोई ।
विशु देव सा देव न होई ।।२९।।
विशु देव को जो कोई ध्यावे ।
सब संकट विकराल होई जावे ।।३०।।
सकल
सनातन संकट करता ।
तुम सी कोई न हरकत करता ।।३१।।
जय जय विशु नाम परम पुनीता ।
दो अक्षर सब गुन से
रीता ।।३२।।
ये अद्भुत अचूक उपाय ।
सब सुख साधन दूर भगाए ।।३३।।
जो
कोई लेवे नाम प्रभु का ।
बिगड़े बनता काम सबहु
का ।।३४।।
पूजत जो उसे मिले न मेवा ।
ऐसे मेरे प्रभु विशु देवा ।।३५।।
।। देव दोहा ।।
जो
नर नारी नित्य इस, पैंतीसा
को पाठ करे ।
नींद
हराम हो जाए रात की, दिन में सबकी गालियाँ पड़े ।।
(एक
बार बाज़ार में एक संत कहे जाने वाले ढोंगी प्रवचनकारी (मेरी नज़र में )की चालीसा देखकर
मेरे मन अपनी भी एक पैंतीसा लिखने की इच्छा हुई और २२ जुलाई २००६ से ३१जुलाई २००६ के
बीच ये पैंतीसा लिखी गई ।)