सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

श्री विशु देव पैंतीसा

जय जय जय विशु देव अति ज्ञानी ।
      बुद्धि     तुमरी    अति   सयानी  ।। १।।

सहज  भाव   से   तुम  हो   आये ।
      सहज   स्वभाव   ही  तुमने  पाये ।।२।।

शिशुकाल   जब   सब   रोते  हैं ।
      तुमने   कम  न  भौकड़े जोते  हैं ।।३।।

नाम  "विश्वास"  है तुमने  पाया ।
       बाल्यकाल    "लालू"    कहलाया ।।४।।

जब हुआ जन को ज्ञान प्रभु का ।
        "लालू"  से  "विशु"  नाम कराया ।।५।।

 बचपन   से  तुम  अत्यंत  भोले ।
       किसी  से  कुछ भी कम ही बोले ।।६।।

  तुम्हरी महिमा कोई जान न पाया ।
        अजब    निराली   तुम्हरी  माया ।।७।।
 


 सब   संकट   के  तुम   हो   करता ।
      दुःख   का  गड्ढा   न  तुमसे  भरता ।।८।।

तुमने    पाई    अद्भुत    काया ।
     मोमबत्ती   की   हो  तुम  छाया ।।९।।

तुम्हरे  वचन   न  जन   मन  भाते ।
         कम  ही   लोग   सहन    कर   पाते ।।१०।।

प्रभु    स्वयंभू     तुम     कहलाये ।
        नाम के  आगे  "महाराज" लगाये ।।११।।

तुमसे    कोई     पार    न     पावे ।
         राय  तुम्हें  न   किसी  की   भावे ।।१२।।

वेद   पुराण     न    तुमने    बाँचे ।
        कुटिल   बुद्धि  से  सब  को  जाँचे ।।१३।।

तुम्हरी  लीला   समझ   न   आई ।
         जब   हुई    तुमसे   कौनु  भलाई ।।१४।।

चरण  फचाकड़ा  तुमने  पाये ।
          धोने     वाले    भी    पछतायें ।।१५।।

ध्वनि तुम्हारी अति  मधुर  है ।
         जैसे   कोई    कौवा   चिल्लाये ।।१६।।

फूल तुम्हें  बेशरम  का भाये ।
         अगरबत्ती    से   मन   हर्षाये ।।१७।।

  तुम्हरी किरपा  जिन  पर होई ।
           तिन पर किरपा करे नहीं कोई ।।१८।।

आलस  को  तुम शीश  धरे ।
        फिर   कोई   कुछ   भी  करे ।।१९।।

कहते "सनकी" लोग  तुम्हें ।
        जान गये  जो  इस लोक में ।।२०।।

पेड़  पौधे  पंछी  सब प्यारे ।
         तुमको  अपने  लगते सारे ।।२१।।

लौकी  कद्दू   तुम्हें   न   भावे ।
        आलू   तुमको   बहुत   लुभावे ।।२२।।

तुमरा   न    है    कोई   ठिकाना ।
        कब    कहाँ   हो   किसने   जाना ।।२३।।

जग में जगह  न  कोई भाये ।
         नरसिंहगढ़  ही  धाम लगाये ।।२४।।

भूख  प्यास से न कोई नाता ।
        पानी  तुमको  खूब  सताता ।।२५।।

तुम्हरे भजन जो नित्य करे ।
         उसे     रोज़   सौ   जूते   पड़ें ।।२६।।

तुमसे  बड़ा   न   कोई  ज्ञानी ।
          जग  में गूँजे ये   झूठी कहानी ।।२७।।

    बिपदा  तब  भक्तन   पे  आये ।
            जब कोई तुमरा ध्यान लगाये ।।२८।।

बात दिल में रखे नहीं कोई ।
         विशु  देव  सा  देव  न  होई ।।२९।।

  विशु  देव  को  जो  कोई ध्यावे ।
           सब संकट विकराल होई जावे ।।३०।।

 सकल सनातन  संकट करता ।
          तुम सी कोई न हरकत करता ।।३१।।

जय जय विशु नाम परम पुनीता ।
          दो   अक्षर  सब   गुन   से    रीता ।।३२।।

  ये    अद्भुत    अचूक  उपाय ।
            सब सुख साधन दूर भगाए ।।३३।।

जो   कोई   लेवे   नाम   प्रभु  का ।
        बिगड़े   बनता   काम   सबहु  का ।।३४।।

पूजत जो उसे मिले न मेवा ।
         ऐसे   मेरे  प्रभु   विशु   देवा ।।३५।।

।। देव दोहा ।।
जो   नर    नारी    नित्य   इस,  पैंतीसा    को   पाठ   करे ।
नींद  हराम हो जाए रात  की, दिन  में सबकी गालियाँ पड़े ।।

(एक बार बाज़ार में एक संत कहे जाने वाले ढोंगी प्रवचनकारी (मेरी नज़र में )की चालीसा देखकर मेरे मन अपनी भी एक पैंतीसा लिखने की इच्छा हुई और २२ जुलाई २००६ से ३१जुलाई २००६ के बीच ये पैंतीसा लिखी गई ।)

बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

राम-रावण और दशहरा

    पिछले कई सालों से या यूँ कहिए कि जन्म से हर साल ही हर दशहरे पर दशहरा मैदान में जाकर रावण के उस बड़े से पुतले के दहन कार्यक्रम मे शिरकत करता आया हूँ । जहाँ रंगीन आतिशबाजी का लुत्फ भी खूब लिया । मगर क्या दशहरा सिर्फ मनोरंजन का त्यौहार है ? तो जवाब मिलेगा नहीं । और ये जवाब कोई पाँचवी कक्षा में पढ़ रहा बच्चा भी आसानी से दे सकता है, क्योंकि तब तक उसे ये रटा दिया जाता है कि दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का त्यौहार है । मगर वो बच्चा न तो बुराई से वाकिफ होता है और न ही उसे अच्छाई की कोई समझ होती है । मतलब कहानियों से बाहर वो न राम को जानता है और न ही रावण को, और सच पूछो तो बड़े बड़े भी इस अंतर को समझने में भूल कर सकते हैं ।

   
      आचार्य रजनीश "ओशो" ने राम और रावण को बड़े आसान तरीके से समझाया है, उस पर संक्षिप्त में नज़र डालें तो रावण वो जो दूसरे की वस्तु में ही अपना सुख ढूँढने की कोशिश करे । अपनी से तो वो ऊब चुका, दूसरे की पाने की चाह में लगा हुआ है और देखा जाए तो ये रावण, हम सभी के भीतर पल रहा है, और राम वो जो अपने पास जो उपलब्ध है उसी में पूर्ण संतुष्ट है । जैसे सब कुछ यही है इसके सिवा कुछ है ही नहीं और अगर है भी तो वो सब भी इसी उपलब्ध में ही है, इससे बाहर कहीं नहीं । अब, दिल हैरान, दिमाग परेशान बड़े भ्रम में थे, अब तक हम तो गाय को घास, कुत्ते को रोटी डालकर सोंचते कि हम राम हैं मगर ये तो राम के मुखौटे में रावण निकला, जो गाय, कुत्ते को रोटी भी अपने स्वार्थ के कारण ही देता है ।
    तब तो प्रश्न ये उठता है कि हर साल दशहरे मैदान में क्या किया ? रावण तो मरा नहीं, और देखा जाए तो हर साल एक नये रूप में पैदा होता गया भीतर ही भीतर कहीं - कभी अहं तो कभी चाह और उत्तरोत्तर उन्नति के साथ बड़ी तेजी से विस्तृत भी होता गया और हम इसी भ्रम में कि भैया रावण मार आये, अच्छाई की जीत हो गई और सच तो ये कि अभी अच्छाई तो पैदा भी नहीं हुई भीतर । और जब राम का जन्म ही नहीं हुआ तो रावण के मरने मारने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता । पहली जरूरत तो राम के जन्म की ही है और इसके बिना तो रावण बढ़ता ही रहेगा और ये ढोंग चलता ही रहेगा कि रावण मर गया ।
    बड़ी समस्या है, बाहर भी देखो तो कई रावण या यों कहें कई कई रावण रोज़ पैदा हो रहे हैं, लूट रहे हैं, खसोट रहे हैं, आर्थिक, सामाजिक और मानसिक रूप से, खजाने को, इज्ज़त को, और नैतिकता को । इस पर भी दशहरे पर नाटक तो देखो क्या खूब, राम पैदा हुए नहीं और रावण मारने का ढोंग । ढोंग भी खुद करने वाला कौन...? रावण खुद ही...! रावण ही राम के वेष में रावण को मारने का ढोंग कर लेता है । रावण वक्त के साथ बड़ा युक्तिपूर्ण हो गया है । अब रावण सबके सामने हो हल्ला नहीं मचाता कि मैं रावण हूँ, बस छिपा रहता है, कई रूप और छद्म चेहरों की आड़ में । वो सबके सामने दिखाता है कि रावण मर गया और साल दर साल इसी झूठ को दृढ़ करने के लिए एक ही नाटक खेलता है । क्योंकि जब लोगों ने ये मान ही लिया कि रावण मर गया, खत्म हो गया तो राम की क्या ज़रूरत । जब ये मान ही लिया कि रावण मर ही गया तो कौन मनाये देवताओं को कि रावण से बचाओ और कोई माँग उठेगी ही नहीं तो ब्रह्मादि देवों को क्या पड़ी कि विष्णु के पास जाये और ये निवेदन करे कि अब जन्म ले लो राम रूप में और मार के छुटकारा दिला दो रावण से । इस तरह रावण ने तो अपनी चतुराई का परिचय देकर फिर एक बार मू्र्ख बना दिया ।
    अब भजिए खाओ और सो जाओ, अगले साल फिर चलेंगे रावण मारने ।

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

मेरी माँ

( नवरात्र में माँ को समर्पित )

मैं देखता हूँ
वो बरसों से,
हर सुबह
सबसे पहले जाग जाती है,
सारे घर की सफाई के बाद नहाती
और फिर खाना बनाती है,
हम सब की कुशल क्षेम के लिए
घंटों तक फिर
भगवान को मनाती है,
और सबको खिलाने के बाद आखिर में
रात की बची
ठण्डी रोटियाँ खाती है,
जो दोस्तों के साथ
किसी रेस्तराँ में
जन्मदिन का जश्न मनाने के बाद,
हमने नहीं खाई थी ।
मगर कभी भी
कोई शिकायत नहीं करती ।

जिसकी अपनी कोई चाह नहीं,
और कभी कोई आह भी नहीं ।
बिना कुछ कहे वो सबकुछ सहती है
न जाने कैसे लेकिन
फिर भी खुश रहती है ।
ज़रा नमक कम पड़ जाने पर
साग में,
हमारी तीखी बातों को भी
मुस्कुराकर लेती है,
सोंचता हूँ कैसे
वो इतना कुछ करती है
हर बात, हर हालात को
चुपचाप सहती है ।

किसी बात फरमाइश पर जिसकी
कोई ना न सुनी
किसी बात को टालने जिसने
कभी कोई कहानी नहीं बुनी ।

जिसे अपनी छोड़
सबकी परवाह है,
हाँ हाँ सिर्फ हाँ
हर माँग पर
हर हाल में
जिसकी सिर्फ हाँ है
वो ही तो मेरी माँ है
हाँ वो ही तो मेरी माँ है...!

--विश्वास शर्मा


गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

Nishaniyaan

तुम्हारी चाहतों के रंग में रंगे
रेशमी धागे से
कपड़े के टुकड़ों पर
किसी कोने में
बड़ी ही खूबसूरती के साथ
काढ़ा हुआ मेरा नाम,
आज भी
तुम्हारी याद दिलाता है ।

बड़े ही दिलचस्प दिन थे वो

जब
घरवालों से नज़रें बचाकर
कभी धूप में छत पर
तो कभी बाथरूम में जाकर
तुम बुना करती थी,
वो छोटे छोटे लम्हे
मोहब्बत के ।

एक अर्सा हो गया

मगर, आज भी
कपड़े के वही टुकड़े
यादों की तरह
हर वक्त
मेरे साथ होते हैं ।

कभी ओढ़ के चेहरे पे

आँखें बंद कर लेता हूँ,
तो कभी ये कोशिश
कि तुम्हारी छुअन का अहसास हो,
और कभी ये अहसास
कि तुम कहीं आसपास हो,
और फिर,
बेबसी में लिपटी
एक मुस्कुराहट,
निकल पड़ती है,
कभी लबों के छोर
तो कभी आँखों की कोर से,
फिर वही कपड़ों के टुकड़े काम आते हैं
जो मेरे पास होते हैं
हाँ... वही टुकड़े
जो तुम्हारी निशानियों की तरह
हर वक्त
मेरे साथ होते हैं...!

---विश्वास शर्मा