बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

राम-रावण और दशहरा

    पिछले कई सालों से या यूँ कहिए कि जन्म से हर साल ही हर दशहरे पर दशहरा मैदान में जाकर रावण के उस बड़े से पुतले के दहन कार्यक्रम मे शिरकत करता आया हूँ । जहाँ रंगीन आतिशबाजी का लुत्फ भी खूब लिया । मगर क्या दशहरा सिर्फ मनोरंजन का त्यौहार है ? तो जवाब मिलेगा नहीं । और ये जवाब कोई पाँचवी कक्षा में पढ़ रहा बच्चा भी आसानी से दे सकता है, क्योंकि तब तक उसे ये रटा दिया जाता है कि दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का त्यौहार है । मगर वो बच्चा न तो बुराई से वाकिफ होता है और न ही उसे अच्छाई की कोई समझ होती है । मतलब कहानियों से बाहर वो न राम को जानता है और न ही रावण को, और सच पूछो तो बड़े बड़े भी इस अंतर को समझने में भूल कर सकते हैं ।

   
      आचार्य रजनीश "ओशो" ने राम और रावण को बड़े आसान तरीके से समझाया है, उस पर संक्षिप्त में नज़र डालें तो रावण वो जो दूसरे की वस्तु में ही अपना सुख ढूँढने की कोशिश करे । अपनी से तो वो ऊब चुका, दूसरे की पाने की चाह में लगा हुआ है और देखा जाए तो ये रावण, हम सभी के भीतर पल रहा है, और राम वो जो अपने पास जो उपलब्ध है उसी में पूर्ण संतुष्ट है । जैसे सब कुछ यही है इसके सिवा कुछ है ही नहीं और अगर है भी तो वो सब भी इसी उपलब्ध में ही है, इससे बाहर कहीं नहीं । अब, दिल हैरान, दिमाग परेशान बड़े भ्रम में थे, अब तक हम तो गाय को घास, कुत्ते को रोटी डालकर सोंचते कि हम राम हैं मगर ये तो राम के मुखौटे में रावण निकला, जो गाय, कुत्ते को रोटी भी अपने स्वार्थ के कारण ही देता है ।
    तब तो प्रश्न ये उठता है कि हर साल दशहरे मैदान में क्या किया ? रावण तो मरा नहीं, और देखा जाए तो हर साल एक नये रूप में पैदा होता गया भीतर ही भीतर कहीं - कभी अहं तो कभी चाह और उत्तरोत्तर उन्नति के साथ बड़ी तेजी से विस्तृत भी होता गया और हम इसी भ्रम में कि भैया रावण मार आये, अच्छाई की जीत हो गई और सच तो ये कि अभी अच्छाई तो पैदा भी नहीं हुई भीतर । और जब राम का जन्म ही नहीं हुआ तो रावण के मरने मारने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता । पहली जरूरत तो राम के जन्म की ही है और इसके बिना तो रावण बढ़ता ही रहेगा और ये ढोंग चलता ही रहेगा कि रावण मर गया ।
    बड़ी समस्या है, बाहर भी देखो तो कई रावण या यों कहें कई कई रावण रोज़ पैदा हो रहे हैं, लूट रहे हैं, खसोट रहे हैं, आर्थिक, सामाजिक और मानसिक रूप से, खजाने को, इज्ज़त को, और नैतिकता को । इस पर भी दशहरे पर नाटक तो देखो क्या खूब, राम पैदा हुए नहीं और रावण मारने का ढोंग । ढोंग भी खुद करने वाला कौन...? रावण खुद ही...! रावण ही राम के वेष में रावण को मारने का ढोंग कर लेता है । रावण वक्त के साथ बड़ा युक्तिपूर्ण हो गया है । अब रावण सबके सामने हो हल्ला नहीं मचाता कि मैं रावण हूँ, बस छिपा रहता है, कई रूप और छद्म चेहरों की आड़ में । वो सबके सामने दिखाता है कि रावण मर गया और साल दर साल इसी झूठ को दृढ़ करने के लिए एक ही नाटक खेलता है । क्योंकि जब लोगों ने ये मान ही लिया कि रावण मर गया, खत्म हो गया तो राम की क्या ज़रूरत । जब ये मान ही लिया कि रावण मर ही गया तो कौन मनाये देवताओं को कि रावण से बचाओ और कोई माँग उठेगी ही नहीं तो ब्रह्मादि देवों को क्या पड़ी कि विष्णु के पास जाये और ये निवेदन करे कि अब जन्म ले लो राम रूप में और मार के छुटकारा दिला दो रावण से । इस तरह रावण ने तो अपनी चतुराई का परिचय देकर फिर एक बार मू्र्ख बना दिया ।
    अब भजिए खाओ और सो जाओ, अगले साल फिर चलेंगे रावण मारने ।

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